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________________ ३ पदार्थ विशेष ३१ पहले ही बताया गया है कि यह सारा विश्व जिसमे कि हम उलझे हुए है, पदार्थों का समूह है, इसके अतिरिक्त कुछ नही । पदार्थ के दो रूप है- एक उसका भीतरी रूप ओर दूसरा बाहरी रूप । भीतरी रूप नित्य है और बाहरी रूप अनित्य । नित्य होनेके कारण भीतरी रूप एक है और अनित्य तथा परिवर्तनशील होनेके कारण वाहरी रूप अनेक है, चित्र-विचित्र है, तरगित है. प्रवाहित है, चचल है । नित्य होनेके कारण भीतरी रूप सत् हे ओर अनित्य होनेके कारण बाहरी रूप असत् है, मिथ्या है, माया है, प्रपच है । भीतरी होनेके कारण सत् साधारण दृष्टिसे देखने मे नही आता और बाहरी होने के कारण असत् सबके देखनेमे आता है । दिखाई न देनेके कारण सत्को कोई नही जानता और दिखाई देने के कारण असत्को सब जानते है । उसे अपनाये कौन ? जिसे जाना है उसे ही अपनानेका प्रयत्न होता । परन्तु खेद है कि जिसे अपनानेका प्रयत्न नही है वही अपनाया जाना सम्भव है, क्योकि वही सत् है, और जिसे अपनाया जानेका प्रयत्न है वह अपनाया जाना सम्भव नही है, क्योकि वह असत् है । प्रयत्न करनेपर भी वह अपनाया या पकड़ा नही जा रहा है, यही दुख है, यही अधर्म है । इसी अधर्मके कारण जगत् दुखी है । सत्को समझे तो अपनानेका प्रयत्न करे, और वह प्रयत्न अवश्य सफल हो जाये, क्योकि वह सम्भव है । प्रयत्नकी सफलता हो सुख है, वही धर्म है । अत. धर्म के लिये सत् की खोज आवश्यक है । २. विश्व मे दो पदार्थ हैं जैसा कि बता दिया गया है, यह सत् साधारण स्थूल दृष्टिसे देखा नही जा सकता, उसके लिए विशेष सूक्ष्म दृष्टि उत्पन्न करनी होगी । 'सत्' को देखनेके लिए इन आँखोसे काम नही चलेगा । उसके लिए अन्तर्चक्षु खोलनी होगी । अत इस सम्बन्धमे जो कुछ भी
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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