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________________ १२ उपमहार २५५ ७ जीव तथा पुद्गल ये दो ही परस्परमे मिलकर अशुद्ध हो सकते हैं, शेष चार त्रिकाल शुद्ध हैं। ८. आकाश, धर्म तथा अधर्म ये तीन व्यापक हैं। जीव, पुद्गल तथा कालाणु अव्यापक हैं । ९, आकाश, धर्म तथा अधर्म ये तीनो एक-एक हैं, जीव तथा पुद्गल अनेक-अनेक हैं । १०. पुद्गल परमाणुरूप द्रव्य है। काल द्रव्य भी अणुरूप है। इन दोनोमे पुद्गल परमाणु तो परस्परमे मिलकर स्कन्ध बना सकते हैं, परन्तु कालाणु सदा पृथक्-पृथक् ही रहते है। २. पंचास्तिकाय ___ इन छहो पदार्थोंमे एक और बात देखनेकी है। वह यह कि इनमे से कोई पदार्थ तो अनेकप्रदेशी है और कोई केवल एकप्रदेशी। जीव, धर्म, अधर्म ये तीन पदार्थ समान रूपसे लोकाकाश प्रमाण असख्यात-प्रदेशी हैं । यद्यपि जीव सिकुड़ कर छोटा हो जाता है परन्तु रहता है उतने प्रदेशवाला ही। आकाश अनन्त प्रदेशी है। पुद्गल यद्यपि मूल रूपसे परमाणु है जो कि एक प्रदेशी है, परन्तु परस्परमे मिलकर अनेक प्रदेशी स्कन्ध बन जानेके कारण इसे भी कदाचित् अनेक प्रदेशवालोको श्रेणीमे रखा जा सकता है। परन्तु काल द्रव्य तो सर्वथा एक प्रदेशी ही है, क्योकि वह स्वयं अणुरूप है और परस्परमे मिलकर भी स्कन्ध रूप नही हो सकता । इसपर-से पता चलता है कि छह पदार्थोंमे काल द्रव्य तो एक प्रदेशी है और शेष पाँच अनेक प्रदेशी। अनेक प्रदेशोंके सचयको शरीर या काय कहते है। यद्यपि लोकमे इस चमडे-हड्डीके शरीरको शरीर या काय कहते हैं, परन्तु
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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