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________________ २५० पदार्थ विज्ञान सुखमा-सुखमा काल वह कहलाता है जबकि पृथिवीपर सर्व प्राणी प्रकृति द्वारा उत्पन्न फलो आदिका भोग ही करते हैं । उस समय उन्हे कुछ भी काम-धाम करना नहीं पड़ता। सुखमा काल वह है जिसमे पूर्ववत् भोग भोगनेकी प्रमुखता रहती है परन्तु पहले की अपेक्षा भोग कुछ कम हो जाते है। तीसरा जो सुखमादुखमा काल है उसमे भोग और भी कम हो जाते है। ये तीनो ही काल भोग-प्रधान हैं। इन तीनोमें मनुष्यको अपने हाथसे खेती आदि करके कुछ भी पैदा करना नहीं पड़ता। उनके जीवनका आधार मात्र प्राकृतिक पदर्थ होते हैं जो बहुत अधिक मात्रामे उस समय स्वत. उत्पन्न हुआ करते हैं। दु.खमा-सुखमा कालमे आकर प्राकृतिक पदार्थ प्राय लुप्त हो जाते है और मनुष्यको अपने हाथसे खेती आदि करनी पडती है, काम करनेके कारण कुछ कष्ट सहना होता है, फिर भी थोडे-से परिश्रमसे बहुत अधिक पैदा हो जाता है और प्रकृति अनुकूल रहती है। पांचवां जो दुखमा काल है वह आप सबके सामने है । परिश्रम अधिक करना होता है, आवश्यकताएँ बढ जाती हैं और पैदा कम होता है। छठा जो दुखमा-दुखमा काल है उसमे प्राकृतिक उपज लगभग बन्द हो जाती है। प्रकृति बिलकुल विरुद्ध हो जाती है, अमानुषिकताका साम्राज्य छा जाता है, व्यक्ति एक दूसरेको मारकर खाने लगता है। जिस प्रकार दुख-सुखमे क्रमिक हानि होती है, उसी प्रकार आयु, बल, शरीरकी ऊँचाई आदिमे भी समझना। सुखमा-सुखमा कालमे आयु बहुत अधिक अर्थात् करोडो वर्षोंकी होती है, शरीर बहुत वडे तथा बलवान् होते हैं। उस समय शरीरमे हजारो हाथियोका वल होता है। सुखमा कालमे उसकी अपेक्षा आयु भी कम तथा शरीरकी ऊँचाई और बल भी कम होता है, तदपि बहुत होता है। इसी अनुपातमे शरीरकी ऊँचाई तथा बल भी घट जाते हैं।
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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