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________________ १५४ पदार्य विज्ञान सम्बन्धी तर्कणाएँ तथा कल्पनाएँ करते रहना और उनमे से अनेको सारभूत बातें निकाल लेना, बड़े-बड़े सिद्धान्त वना देना यह सब श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञानके ये सर्व भेद यद्यपि मनुष्यमे ही सम्भव है परन्तु सर्व ही व्यक्तियोमे पाये जायें यह कोई आवश्यक नही, क्योकि प्रत्येक व्यक्तिका ज्ञान समान नही होता। सर्वत्र हीनाधिकता देखी जाती है। संज्ञी अर्थात् मनवाले पशु-पक्षियोमे भी इनमेसे कुछ भेद पाये जाते हैं। स्थावर तथा विकलेन्द्रियोमें उनकी इन्द्रियोंके योग्य मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका केवल पहला भेद ही पाया जाता है । देव तथा नारकियोमे दोनो ज्ञानोंके यथायोग्य सर्व भेद मनुष्योवत् हीनाधिक रूपसे पाये जाते हैं । १४. अवधिज्ञान अवधिज्ञान एक विशेष प्रकारका ज्ञान है, जिसके द्वारा निकटस्थ अथवा अत्यन्त दूरस्थ भी जड़ या चेतन पदार्थोंका भूतभविष्यत् सम्बन्धी सारा चित्र-विचित्र हाल, हाथपर रखे आँवलेवत् प्रत्यक्ष दिखाई देता है। इस ज्ञानके द्वारा योगीजन इतना तक बता देते हैं कि तू पहले कई भवोमे कहाँ-कहाँ तथा किस-किस व्यक्तिके यहाँ जन्मा था। मनुष्य योनिमे था या पशु आदि अन्य योनियोमे। वहां तूने किस-किस व्यक्तिके द्वारा किस-किस प्रकार क्या-क्या दु.ख-सुख सहा था, और आगेके कई भवोमे कहाँ. कहां किस-किस व्यक्तिके यहां अथवा किस-किस योनिमे जन्मकर, किस-किस व्यक्तिके द्वारा किस-किस प्रकार क्या-क्या दुःखसुख भोगेगा। यद्यपि किन्ही ज्ञानी गृहस्थोमे तथा पशु-पक्षियोमे भी कदाचित् कुछ मात्रामे यह ज्ञान हो जाना सम्भव है, परन्तु मुख्यत तपस्वी
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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