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________________ ११४ पदार्थ विज्ञान परिग्रह संचयके भावसे मन हर समय अत्यन्त मलिन रहता है, इसलिए यह प्रचुर प्रकारका पापकर्म है। मायाचारीके भावसे मन यद्यपि मलिन रहता है, परन्तु कभी-कभी कृत्रिम प्रेमकी भावनाके कारण उज्ज्वलता भी रहती है, इसलिए यह पहलेको अपेक्षा छोटा पापकर्म है। प्रेम व मृदु भावसे मन उज्ज्वल रहता है परन्तु लौकिक प्रवृत्तिके कारण कुछ मलिनता भी रहती है, इसलिए यह कुछ कम दर्जेका पुण्यकर्म है। नि स्वार्थ सेवा तथा ईश्वरपरायणता आदिके भावोसे मन अत्यन्त उज्ज्वल रहता है, इसलिए यह प्रचुर पुण्यकर्म है। प्रचुर पापका फल प्रचुर दुख होना चाहिए जो तियं चोमे सम्भव नही है और इसी प्रकार प्रचुर पुण्यका फल भी प्रच सुख होना चाहिए जो मनुष्योमे सम्भव नहीं है । प्रचुर दु ख उसे कहते हैं जहाँ बिल्कुल सुख न हो और ऐसा फल नरकमे ही सम्भव है। इसी प्रकार प्रचुर सुख उसे कहते हैं जहाँ दूख बिल्कूल न हो और ऐसा फल देवोमे ही सम्भव है। मध्यम दर्जेके पापका फल तिर्यंच और मध्यम दर्जेके पुण्यका फल मनुष्य है। इस प्रकार चार प्रकारके मानसिक भावोका फल पानेके लिए चार प्रकारकी गतियोका होना आवश्यक है। अत भले ही प्रत्यक्ष न हो परन्तु नरक व देवगति हैं अवश्य । यह कोई न्याय नही है कि जो चीज़ हमको दिखाई नहीं देती वह है ही नही। विज्ञानने जिन चीज़ोको खोज निकाला है वे कभी भी मानवको प्रत्यक्ष नही थी फिर भी वे चीज़े थी तो अवश्य, तभी तो खोजी जानो सम्भव हो सकी। यद्यपि भाव चार प्रकारके है, और चार ही प्रकारके उनके फल बता दिये गये हैं परन्तु ये केवल सामान्य रूपवाले मानसिक भाव तथा उनके फल हैं। इनके साथ वचन तथा शरीरके पाप-पुण्यरूप कर्मोका सम्मेल भी होता है। वस उन कर्मोके
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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