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________________ अष्टपाहुड २८५ जिनेंद्रदेवने जिनमार्गमें शुद्धिके लिए जिस रूपस्थ मार्गका निरूपण किया है, छह कायके जीवोंका हित करनेवाला वह मार्ग भव्य जीवोंको समझानेके लिए मैंने कहा है।। सद्दवियारो हूओ, भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं। सो तह कहियं णायं, सीसेण य भद्दबाहुस्स।।६०।। शब्दविकारसे उत्पन्न हुए भाषासूत्रोंमें श्री जिनेंद्रदेवने जो कहा है तथा भद्रबाहुके शिष्यने जिसे जाना है वही मार्ग मैंने कहा है।।६०।। बारसअंगवियाणं, चउदसपुव्वंगविउलवित्थरणं। सुयणाणिभद्दबाहू, गमयगुरू भयवओ जयओ।।६१।। द्वादशांगके जाननेवाले, चौदह पूर्वोका बृहद् विस्तार करनेवाले और व्याख्याकारोंमें प्रधान श्रुतकेवली भगवान् भद्रबाहु जयवंत होवें।। इस प्रकार बोधपाहुड समाप्त हुआ। भावपाहुड णमिऊण जिणवरिंदे, णरसुरभवणिंदवंदिए सिद्धे। वोच्छामि भावपाहुडमवसेसे संजदे सिरसा।।१।। चक्रवर्ती, इंद्र तथा धरणेंद्रसे वंदित अर्हतोंको, सिद्धोंको तथा अवशिष्ट आचार्य, उपाध्याय और साधुरूप संयतोंको शिरसे नमस्कार कर मैं भावपाहुड ग्रंथको कहूँगा।।१।। भावो हि पढमलिंगं, च ण दव्वलिंगं जाण परमत्थं । भावो कारणभूदो, गुणदोसाणं जिणा विंति।।२।। निश्चयसे भाव जिनदीक्षाका प्रथम लिंग है, द्रव्यलिंगको तू परमार्थ मत जान, भाव ही गुणदोषोंका कारण है ऐसा जिनदेव कहते हैं।।२।।। भावविसुद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स।।३।। भावशुद्धिके कारण ही बाह्यपरिग्रहका त्याग किया जाता है। जो आभ्यंतर परिग्रहसे युक्त है उसका बाह्य परिग्रहका त्याग निष्फल है।।३।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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