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________________ बत्तीस कुंदकुंद-भारती व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति माध्यस्थः । प्राप्नोति देशनाया: स एव फलमविकलं शिष्यः । । ८ । । अर्थात् जो यथार्थरूपसे व्यवहार और निश्चयको जानकर मध्यस्थ होता है -- किसी एकके पक्षको पकड़कर नहीं बैठता, वही शिष्य देशना -- गुरूपदेश के पूर्ण फलको प्राप्त होता है। पंचास्तिकायमें सम्यग्दर्शनके विषयभूत पंचास्तिकायों और छह द्रव्योंका प्रमुख रूपसे वर्णन है । समयप्राभृत अथवा समयसार 'वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीभणियं' इस प्रतिज्ञावाक्यसे मालूम होता है कि इस ग्रंथका नाम कुंदकुंदस्वामीको समयपाहुड (समयप्राभृत) अभीष्ट था, परंतु पीछे चलकर 'प्रवचनसार' और 'नियमसार' इन सारांत नामोंके साथ 'समयसार' नामसे प्रचलित हो गया। 'समयते एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति च' अर्थात् जो पदार्थोंको एक साथ जाने अथवा गुणपर्यायरूप परिणमन करे वह समय है इस निरुक्तिके अनुसार समय शब्दका अर्थ जीव होता है और 'प्रकर्षेण आसमन्तात् भृतं इति प्राभृतम्' जो उत्कृष्टताके साथ सब ओरसे भरा हो -- जिसमें पूर्वापर विरोधरहित सांगोपांग वर्णन हो उसे प्राभृत कहते हैं इस निरुक्तिके अनुसार प्राभृतका अर्थ शास्त्र होता है। 'समयस्य प्राभृतम्' इस समासके अनुसार समयप्राभृतका अर्थ जीव आत्माका शास्त्र होता है। ग्रंथका चालू नाम समयसार है अतः इसका अर्थ कालिक शुद्ध स्वभाव अथवा सिद्धपर्याय है। समयप्राभृत ग्रंथ निम्न १० अधिकारोंमें विभाजित है -- १. पूर्वरंग, २. जीवाजीवाधिकार, ३. कर्तृकर्माधिकार, ४. पुण्यपापाधिकार, ५. आस्रवाधिकार, ६. संवराधिकार, ७. निर्जराधिकार, ८. बंधाधिकार, ९. मोक्षाधिकार और १०. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार । नयोंका सामंजस्य बैठानेके लिए अमृतचंद्र स्वामीने पीछेसे स्याद्वादाधिकार और उपायोपेयाभावाधिकार नामक दो स्वतंत्र परिशिष्ट और जोड़े हैं। अमृतचंद्रसूरिकृत टीकाके अनुसार समग्र ग्रंथ ४१५ गाथाओंमें समाप्त हुआ है। और जयसेनाचार्यकृट टीकाके 'अनुसार ४४२ गाथाओंमें 1 उपर्युक्त गाथाओं का प्रतिपाद्य विषय इस प्रकार है -- पूर्वरंगाधिकार कुंदकुंदस्वामीने स्वयं पूर्वरंग नामका कोई अधिकार सूचित नहीं किया है परंतु संस्कृत टीकाकार अमृतचंद्रसूरिने ३८ वीं गाथाकी समाप्तिपर पूर्वरंग समाप्तिकी सूचना दी है। इन ३८ गाथाओंमें प्रारंभकी १२ गाथाएँ पीठिकास्वरूपमें हैं। जिनमें ग्रंथकर्ताने मगलाचरण, ग्रंथप्रतिज्ञा, स्वसमय-परसमयका व्याख्यान तथा शुद्धनय और अशुद्धनयके स्वरूपका दिग्दर्शन कराया है। इन नयोंके ज्ञानके बिना समयप्राभृतको समझना अशक्य है। पीठिकाके बाद ३८ वीं गाथातक पूर्वरंग नामका अधिकार है जिसमें आत्माके शुद्ध स्वरूपका निदर्शन कराया गया है। शुद्धनय आत्मामें जहाँ परद्रव्यजनित विभावभावको स्वीकृत नहीं करता वहाँ वह अपने गुण और पर्यायोंके साथ भेद भी स्वीकृत नहीं करता। वह इस बातको भी स्वीकृत नहीं करता कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये आत्माके गुण हैं, क्योंकि इनमें गुण और गुणीका भेद सिद्ध होता है। वह यह घोषित करता है कि आत्मा सम्यग्दर्शनादिरूप है। 'आत्मा प्रमत्त है और आत्मा अप्रमत्त है' इस कथनको भी शुद्ध स्वीकृत नहीं करता, क्योंकि इस कथनमें आत्मा प्रमत्त और अप्रमत्त पर्यायोंमें विभक्त होता है। वह तो आत्माको एक ज्ञायक ही स्वीकृत करता है। जीवाधिकारमें जीवके निजस्वरूपका कथन कर उसे परपदार्थों और परपदार्थोंके निमित्तसे होनेवाले विभावोंसे पृथक् निरूपित किया है। नोकर्म मेरा नहीं है, द्रव्यकर्म मेरा नहीं है, और भावकर्म भी मेरा नहीं है, इस तरह इन पदार्थोंसे आत्मतत्त्वको पृथक् सिद्ध कर ज्ञेय-ज्ञायक भाव और भाव्य-भावक
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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