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________________ पण्णाए चित्तव्यो, जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा, ते मज्झ परेत्ति णायव्वा ।।२९७ ।। जो चेतनस्वरूप आत्मा है वह निश्चयसे मैं हूँ इस प्रकार प्रज्ञाके द्वारा ग्रहण करना चाहिए और बाकी जो भाव हैं वे मुझसे परे हैं ऐसा जानना चाहिए।।२९७ ।। आगे मैं ज्ञाता दृष्टा हूँ ऐसा प्रज्ञाके द्वारा ग्रहण करना चाहिए -- पण्णाए चित्तव्यो, जो दट्ठा अहं तु णिच्छयओ। अवसेसा जे भावा, ते मज्झ परेत्ति णायव्वा ।।२९८ ।। पण्णाए पित्तव्यो, जो आदा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा, ते मज्झ परेत्ति णादव्वा।।२९९।। प्रज्ञाके द्वारा इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए कि जो द्रष्टा है -- देखनेवाला है वह निश्चयसे मैं हूँ और अवशिष्ट जो भाव हैं वे मुझसे पर हैं ऐसा जानना चाहिए। प्रज्ञाके द्वारा इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए कि जो ज्ञाता है निश्चयसे मैं हूँ, बाकी जो भाव हैं वे मुझसे पर हैं ऐसा जानना चाहिए।।२९८-२९९ ।। आगे इसी बातका समर्थन करते हैं -- को णाम भणिज्ज बुहो, 'णाउं सव्वे पराइए भावे। मज्झमिणंति य वयणं, जाणतो अप्पयं सुद्धं ।।३००।। शुद्ध आत्माको जानता हुआ कौन ज्ञानी समस्त परभावोंको जानकर ऐसे वचन कहेगा कि ये भाव मेरे हैं? अर्थात् कोई नहीं।।३००।। आगे अपराध बंधका कारण है यह दृष्टांत द्वारा सिद्ध करते हैं -- २थेयाई अवराहे, कुव्वदि जो सो उ संकिदो भमइ। मा वज्झेज केणवि, चोरोत्ति जणम्मि वियरंतो।।३०१।। जो ण कुणई अवराहे, सो णिस्संको दु जणवए भमदि। ण वि तस्स वज्झिदं जे, चिंता उप्पज्जदि कयाइ ।।३०२।। एवं हि सावराहो, वज्झामि अहं तु संकिदो चेया। जइ पुण णिरवराहो, णिस्संकोहं ण वज्झामि।।३०३।। २. तेयादी। ३. ससंकिदो। ४. वज्झेहं । ५. जणसि। ६. कुणदि। ७. वज्झिद। १. णाउं सव्वे परोदए भावे ज. वृ.। ८. कयावि। ९. चेदा। १०. जो ज. वृ. ।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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