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________________ मोक्षाधिकारः आगे जो पुरुष बंधका स्वरूप जानकर ही संतुष्ट हो जाते हैं, उसके नष्ट करनेका प्रयास नहीं करते उनके मोक्ष नहीं होता यह कहते हैं जह णाम कोवि पुरिसो, बंधणायम्हि चिरकालपडिबद्धो । तिव्वं मंदसहावं, कालं च वियाणए तस्स ।। २८८ ।। जइ वि कुणइ च्छेदं, ण मुच्चए तेण बंधणवसो सं । काले उ बहुवि, ण सो णरो पावइ विमोक्खं । । २८९ । । इय कम्मबंधणाणं, 'पएसठिइपयडिमेवमणुभागं । जाणतो विमुच्च, 'मुच्चइ सो चेव जइ सुद्धो ।। २९० ।। जिस प्रकार कोई पुरुष बंधनमें बहुत कालका बँधा हुआ उस बंधनके तीव्र मंद स्वभाव तथा समयको जानता है, परंतु उसका छेदन नहीं करता है तो वह पुरुष बंधनका वशीभूत हुआ बहुत कालमें भी उससे मोक्ष - छुटकारा नहीं पाता है उसी प्रकार जो पुरुष कर्मबंधके प्रदेश, स्थिति, प्रकृति तथा अनुभाग रूप भेदोंको जानता हुआ भी उनका छेदन नहीं करता वह कर्मबंधनसे मुक्त नहीं होता है। यदि वह शुद्ध होता है -- रागादि भावोंको दूर कर अपनी परिणतिको निर्मल बनाता है तो मुक्त होता है । । २८८-२९० ।। आगे बंधकी चिंता करनेपर भी बंध नहीं कटता है यह कहते हैं - जह बंधे चिंतंतो, बंधणबद्धो ण पावइ विमोक्खं । तह बंधे चिंतंतो, जीवोवि ण पावइ विमोक्खं । । २९१ । । जैसे बंधनसे बँधा हुआ पुरुष बधनकी चिंता करता हुआ भी उससे मोक्ष -- छुटकारा नहीं पाता, उसी प्रकार कर्मबंधकी चिंता करता हुआ जीव भी उससे मोक्षको नहीं पाता है । । २९१ । । आगे तो फिर मोक्षका कारण क्या है? इसका उत्तर देते हैं। • जह बंधे "छित्तूण य, बंधणबद्धो उ 'पावइ विमोक्खं । तह बंधे चित्तूणय, जीवो 'संपावइ विमोक्खं । । २९२ ।। १. पदेशपयडिट्ठिदीय ज. वृ. । २. मुंचदि सव्वे जदि विसुद्धो । ज. वृ. । (मुंचदि सव्वे जदि स बंधे) पाठान्तरम्। ज. वृ. । ३- ४. पावदि । ज. वृ. । ५. मुत्तूण य । ६. पावदि । ७. मुत्तूण य। ८. संपावदि ज. वृ. । ין
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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