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________________ समयसार ४५ समयसार: श्री कुंदकुंद स्वामी समयसार ग्रंथके प्रारंभमें मंगलाचरण करते हुए ग्रंथ कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं -- वंदित्तु सव्वसिद्धे, 'धुवमचलमणोवमं गई पत्ते। वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीभणियं ।।१।। मैं ध्रुव, अचल अथवा निर्मल और अनुपम गतिको प्राप्त हुए समस्त सिद्धोंको नमस्कार कर हे भव्यजीवो! श्रुतकेवलियोंके द्वारा कहे हुए इस समयप्राभृत नामक ग्रंथको कहूँगा।।१।। आगे समयके स्वसमय और परसमय के भेदसे दो भेद बतलाते हैं जीवो चरित्तदंसण,णाणट्ठिउ' तं हि ससमयं जाण। पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं ।।२।। जो जीव दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें स्थित है निश्चयसे उसे स्वसमय जानो और जो पुद्गल कके प्रदेशोंमें स्थित है उसे परसमय जानो।।२।। आगे अपने गुणोंके साथ एकत्वके निश्चयको प्राप्त हुआ शुद्ध आत्मा ही उपादेय है और कर्मबंधके साथ एकत्वको प्राप्त हुआ आत्मा हेय है अथवा स्वस्थान ही शुद्धात्माका स्वरूप है पर समय नहीं ... यह अभिप्राय मनमें रखकर कहते हैं -- एयत्तणिच्छयगओ, समओ सव्वत्थ सुंदरो लोए। बंधकहा एयत्ते, तेण विसंवादिणी होई ।।३।। स्वकीय शुद्धगुणपर्यायरूप परिणत अथवा अभेदरत्नत्रयरूप परिणमन करनेवाला एकत्वनिश्चयको प्राप्त हुआ समय ही -- आत्मा ही समस्त लोकमें सुंदर है। अतः एकत्वके प्रतिष्ठित होनेपर उस आत्मपदार्थके साथ बंधकी कथा विसंवादपूर्ण है -- मिथ्या है। जबकि संसारके समस्त पदार्थ स्वस्वरूपमें निमग्न होकर पर पदार्थसे भिन्न हैं तब जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यके साथ संबंधको कैसे प्राप्त हो सकता है? ।।३।। १. अमलं अथवा अचलं इति पाठान्तरे ज. वृ.। २. गदि ज. वृ. ३. ओ अहो भव्याः ज. वृ. ४. सुदकेवलीभणिदं ज. वृ.। ५....णाणट्ठिद ज. वृ.। ६. कम्मुवदेशट्ठिदं (पुद्गलकर्मोपदेशस्थितं। ज. वृ. । ७. .... गदो ज. वृ. । ८. होदि ज. वृ. ।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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