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________________ (५३) नरनारियोंकी अपार भीड़ हो गई, लोग नानातरहके विचारोंकी कल्पना करने लगे। कोई कहते-अहो धन्य है यह कुमार को विषयसे मुंह मोड संसारसे नाता तोड़ जा रहा है। कोई कहतेमाई कुमारका शरीर तो केलेक झाड सरीखा कोमल है और यह मिनेश्वरी दीक्षा खड्गकी धार है, किस प्रकार सहन होगी ? काई माताकी दशा देख कहते थे “एक प्रत जन्मो री माय । घर मूनो कर तपको जाय ॥" इत्यादि मनके अनुसार बोलते थे, परन्तु स्वामीका ध्यान तो बनम मुनिके चरणकमलों में लग रहा था। सब लोग क्या करते और कहते हैं, इस ओर कुछ भी ध्यान नहीं था ! जब स्वामीक प्रयाण करनेका निश्चय ही हो गया तव रानाने ग्लजड़ित पालकी मंगाई और स्वामीको स्नान कराकर केशर चन्दनादि सुगन्धित पदाथोंसे विलेपन किया तथा पाटम्बरादि उत्तमोत्तम वस्त्र और सर्व आभूषण पहिराये । अहा! इस सम्य स्वामीके गरीरकी कांति कैसी अपूर्व थी कि सूर्य मी भरमा जाता था। राजाने स्वामीको पालकीपर चढ़ाकर एक ओर आप स्वयं लगे, दूसरी जोर सेठ लग ग्य। इस प्रकारसे पालकी लेकर वनको चले। आगे आगे बाने वनते हुए जा रहे थे। इसी समय माताने जाकर ये समाचार बहुओंसे कह दिये, सो वे सुनते ही मूर्छित हुई । जव सखियोंने गीतोपचार कर मूर्छा दूर की, तब वे चारों अपनी सुध भूलकर गिरती पडती दौड़ी और स्वामीकी पालकांके चारों पाये चारोंने पकड़कर कहा-.
SR No.009552
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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