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________________ (१२) भाई है, जो श्रीगुरुके दर्शनको आया है। यह गुरुके प्रसादसे सच्चे मार्गमें लग जायगा। यह सुन सब मुनि सराहना कर कहने लगे-'हे मुने! यह तुमने बहुत ही अच्छा किया जो मसार सागरमें वहते हुएको पार लगाया। अब इसे जिनेश्वरी दीक्षा लेना चाहिये, ताकि कर्मीको काटकर अविचल अविनाशी सुख प्राप्त करे।' यह बात सुनकर भवदेव विप्र विचारने लगा- हे विधाता! यह क्या हुआ ? अब मै क्या कल? जो दोक्षा ले ल. तो आनको व्याही स्त्री क्या कहेगी ? और वह कैसे जीवन व्यतीत करेगी ? लोग मुझे क्या कहेंगे ? और जो घर जाऊँ तो भाईकी बात नाती है। ये साथके मुनि उनका हास्य करेंगे कि इनका भाई, इतना कायर है। ये ऐसे कापुरुषको क्यों लाये ? इत्यादि। ऐसा विकल्प करते २ उसने यह निश्चय किया कि इस वक्त तो भैसा ये लोग कह वैसा ही कर लूं और कुछेक दिन मुनि ही बनकर रहूँ फिर ज्यों ही कोई मौका हाथ लगा कि त्यों ही तुरत भागकर घर चला जाऊँगा, यह सोच मिनदीक्षा ले ली। श्रीगुरुने उसे भव्य जानकर कि यद्यपि अभी इसके मनमें दुर्ध्यान है परतु पीछे यह मुनिनायक होगा, दीक्षा दे दी। पश्चात् यह मुनिसंघ कई देशों में विहार करता और अनन्त भव्य जीवोंको संबोधन करता हुआ, बारह वर्ष पीछे फिर उसी वनमें आया। तव भवदेवने मनमें यह विचार कर कि अब जाकर अपनी स्त्रीको देखना चाहिये, गुरुको नमस्कार कर नगरकी ओर चले । सो ईर्यापथ सोधते हुए मिनालयमें पहुंचे और प्रभुकी वाना कर बैठे। इतनेमें वहाँ एक आर्यिकाको देख। परस्पर रत्नत्रयकी कुशल
SR No.009552
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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