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________________ ३५० कुंदकुंद-भारती मिथ्यात्वके आश्रयसे इस जीवने नरककी जघन्य आयु से लेकर उपरिम ग्रैवेयक तककी भवस्थितिको धारण कर अनेक बार भ्रमण किया है। भावार्थ -- नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगतिमें जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट आयु तकको क्रमसे प्राप्त कर लेनेमें जितना समय लगता है उतने समयको भवपरिवर्तन कहते हैं। नरक गतिकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षकी तथा उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरकी है। मनुष्य और तिर्यंच गतिकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्तकी और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्यकी है। तथा देवगतिकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षकी और उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरकी है। परंतु मिथ्यादृष्टि जीवकी उत्पत्ति देवगतिमें इकतीस सागर की आयुसे युक्त उपरिम प्रैवेयक तक ही होती है। इसलिए देवगतिमें भवस्थितिकी अंतिम मर्यादा ग्रैवेयक तक ही बतलायी गयी है।।२८।। भावपरिवर्तनका स्वरूप सव्वे पयडिट्ठिदिओ, अणुभागपदेसबंधठाणाणि। जीवो मिच्छत्तवसा, भमिदो पुण भावसंसारे।।२९।। इस जीवने मिथ्यात्वके वश समस्त कर्मप्रकृतियोंकी सब स्थितियों, सब अनुभागबंधस्थानों और सब प्रदेशबंध स्थानोंको प्राप्त कर बार-बार भाव संसारमें परिभ्रमण किया है। भावार्थ -- ज्ञानावरणादि समस्त कर्मप्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबंधसे लेकर उत्कृष्ट स्थितिबंध तकके योग्य समस्त कषायाध्यवसायस्थान, समस्त अनुभागाध्यवसायस्थान और समस्त योगस्थानोंको प्राप्त कर लेना भावसंसार है। ये पाँचों परिवर्तन ही पाँच प्रकारके संसार हैं। इन संसारोंमें जीवका परिभ्रमण मिथ्यात्वके कारण होता है।।२९।। पुत्तकलत्तणिमित्तं, अत्थं अज्जयदि पापबुद्धीए। परिहरदि दयादाणं, सो जीवो भमदि संसारे।।३०।। जो जीव पुत्र तथा स्त्रीके निमित्त पापबुद्धिसे धन कमाता है और दयादानका परित्याग करता है वह संसारमें भ्रमण करता है।।३०।। मम पुत्तं मम भज्जा, मम धणधण्णो त्ति तिव्वकंखाए। चइऊण धम्मबुद्धिं, पच्छा परिपडदि दीहसंसारे।।३१।। जो जीव, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धनधान्य है इस प्रकारकी तीव्र आकांक्षासे धर्मबुद्धिको छोड़ता है वह पीछे दीर्घ संसारमें पड़ता है।।३१।। मिच्छोदयेण जीवो, जिंदंतो जोण्हभासियं धम्मं । कुधम्मकुलिंगकुतित्थं, मण्णंतो भमदि संसारे।।३२।।
SR No.009549
Book TitleDvadashanu Preksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages19
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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