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________________ ३४८ कुदकुद-भारती दंसणभट्टा भट्टा, दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं। सिझंति चरियभट्टा, दंसणभट्टा ण सिझंति ।।१९।। जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे ही भ्रष्ट हैं। सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट मनुष्यका मोक्ष नहीं होता। जो चारित्रसे भ्रष्ट हैं वे तो (पुनः चारित्रके धारण करनेपर) सिद्ध हो जाते हैं, परंतु जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे सिद्ध नहीं हो सकते। भावार्थ -- जो मनुष्य सम्यग्दृष्टि तो है परंतु चारित्रमोहका तीव्र उदय आ जानेके कारण चारित्रसे भ्रष्ट हो गया है वह पुनः चारित्रको धारण कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है परंतु जो सम्यग्दर्शनसे भी भ्रष्ट हो गया है उसका मोक्ष प्राप्त करना सरल नहीं है।।१९।। एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो, णाणदंसणलक्खणो। सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ संजदो।।२०।। मैं अकेला हूँ, ममत्वसे रहित हूँ, शुद्ध हूँ तथा ज्ञान-दर्शनरूप लक्षणसे युक्त हूँ इसलिए शुद्ध एकत्वभाव ही उपादेय है -- ग्रहण करनेके योग्य है। इस प्रकार संयमी साधुको सदा विचार करते रहना चाहिए।।२०।। अन्यत्वानुप्रेक्षा मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो। जीवस्स ण संबंधो, णियकज्जवसेण वदि॒ति ।।२१।। माता, पिता, सगा भाई, पुत्र तथा स्त्री आदि बंधुजनों -- इष्ट जनोंका समूह जीवसे संबंध रखनेवाला नहीं है। ये सब अपने कार्यके वश साथ रहते हैं।।२१।।। अण्णो अण्णं सोयदि, मदो वि मम णाहगो त्ति मण्णंतो। अप्पाणं ण हु सोयदि, संसारमहण्णवे बुड्ढे ।।२२।। यह मेरा स्वामी था, यह मर गया इस प्रकार मानता हुआ अन्य जीव अन्य जीवके प्रति शोक करता है परंतु संसाररूपी महासागरमें डूबते हुए अपने आपके प्रति शोक नहीं करता।।२२।। अण्णं इमं सरीरादिगं पि होज्ज बाहिरं दव्वं । णाणं दंसणमादा, एवं चिंतेहि अण्णत्तं ।।२३।। यह जो शरीरादिक बाह्य द्रव्य है वह सब मुझसे अन्य है, ज्ञान दर्शन ही आत्मा है अर्थात् ज्ञान दर्शन ही मेरे हैं। इस प्रकार अन्यत्व भावनाका चिंतन करो।।२३।।
SR No.009549
Book TitleDvadashanu Preksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages19
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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