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________________ भद्रबाहु-चरित्रस्थान श्रीविशाखाचार्य साधुओंके सङ्गके साथ र दक्षिण वेशकी ओरसे बिहार करते हुये उज्जयिनी नगरीमें आकर फलफूलादिसे समृद्ध उसके उपवनमें ठहरे । निरन्तर सिद्धभगवानका ध्यान करनेवाले, अज्ञान रूप अन्धकारके समूहका विध्वन्स करने वाले तथा विशुद्धचारित्रके धारक श्रीभद्रबाहु रूप सूर्यके लिये अपने मनोभिलषित स्वाभाविक सुखकी समुपलब्धिके लिये बारम्बार अभिवन्दन करता हूं। इस श्लोकों श्रीमद्रबाहु स्वामीको सूर्यकी उपमा दी है क्योंकि सूर्य भी निरन्तर आकाशमें रहताहै अन्धकारका नाश करने वाला होता है तथा निष्कलङ्क होता है। . इति श्री रत्ननन्दि आचार्यविरचित भद्रवाहु-चरित्रमें बादश वर्ष पर्यन्त दुर्मिक्ष तथा विशाखाचार्यके दक्षिण देशसे भागमनका वर्णन वायतृतीय अधिकार समाप्त हुआ||३|| - फलितनगनिवेशे तत्सुरोशानदेशे मुनिवररायपूर्णः सुरिषयोऽवतीर्णः ॥ ७ ॥ निरन्तरानन्तयतात्मवृत्ति निरस्तदुवोधतमोवितावम् । श्रीमद्रबाहूणकरं विभुखं वितमीमीहितवाससिद्धपै ॥ ९९ ॥ इति श्रीभद्रबाहुचरित्रे श्रीरत्ननन्द्याचार्यविरचिते द्वादशवर्षभिक्षविशाखाचार्यगमनवर्णनो नाम तृतीयोऽधिकारः ॥३॥
SR No.009546
Book TitleBhadrabahu Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherJain Bharti Bhavan Banaras
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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