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________________ ४८ · भद्रवाहु-धरित्र। आकर और उन्हें नमस्कार कर देखे हुये वृतान्तको कह सुनाया | चन्द्रगुप्तिके बचन सुनकर भद्रबाहुने उनकी प्रशंसा कर कहा-वत्स ! जैसा शास्त्रोंमें कहा वैसाही तुमने आचरण किया क्योंकि जहां केवल एकही स्त्री हो वहां साधुओंको जीमना योग्य नहीं है। फिर चौथे दिन गुरूको प्रणाम कर आहारके लिये जब चन्द्रगुप्तिमुनि घूमने लगे तब वनदेवीने उन्हें निश्चलवतके धारण करने वाले तथा पवित्र हृदय समझ कर उसीसमय वनमें गृहस्थजनोंसे पूर्ण नगर रचा। मुनिराजने भी मनुष्योंसे पूर्ण नगर देखकर उसमें प्रवेश किया और वहां गृहस्थोंसे पदपदमें नमस्कार किये हुये होकर श्रावकोंके द्वारा यथाविधि दिया हुआ मनोहर आहार ग्रहण किया। चन्द्रगुप्ति मुनिराज पारणा करके अपने स्थान पर त्रियम् । विलोक्यायोम्यतां मत्वा विरराम सतो नमात् ॥ २७॥ गुरुमभ्येत्य पन्दित्वा पुनस्तवृत्तमालपत् । तवाकये समाचठे दीक्षित संशयन्गुरुः ॥ २८॥ यदुतमागमे वत्स ! तदेवाऽनुष्ठितं त्वया । न युकं यत्र वार्मका यीनां तत्र मनम् ॥ २९ ॥ चतुर्थेऽडि गुरुं नत्वा लेपार्थ व्यचरन्मुनिः। ज्ञात्वा नतं धीर देव्या पुरवतसम् ॥ ३० ॥ नगरं निर्मित तत्र सापारिजनं संकृतम् । गच्छंस्तत्र मानवाक्ष्य नगर नागरवम् ॥ ११ ॥ प्रविष्टस्ता सागरैर्वन्धमानः पदे पदे । समाह सविराऽऽहार प्रतं पायथाविधिः ॥ ३२॥ कृत्वाऽसौ पारणं गत्वा स्वस्थान त्वरित
SR No.009546
Book TitleBhadrabahu Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherJain Bharti Bhavan Banaras
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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