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________________ समूलभावानुवाद। * ४५ तो उत्तम शिष्य कहे जाते हैं जो गुरूकी आज्ञाके पालन करने वाले होते हैं। ___पश्चात् श्रीविशाखाचार्य-समस्त साधुसंघके साथ २ ईयाँसमितीकी शुद्धिपूर्वक दक्षिणदेशमें विहार करते हुये मार्गमें भव्य पुरुषोंको सुमार्गके अभिमुख करते हुये और नवदीक्षित साधुओंको पढ़ाते हुये चौलदेशमें आये। और फिर वहीं रहकर धर्मोपदेश करने लगे। उधर तत्वके जानने वाले विशुद्धात्मा तथा योग साधनमें पुरुषार्थशाली श्रीभद्रबाहु योगीराजने अपने मन बचन कायके योगोंकी प्रवृत्तिको रोककर सल्लेखना विधि स्वीकार की और फिर वहीं पर गिरिगुहामें रहने लगे। उनकी परिचर्या के लिये जो चन्द्रगुप्त मुनि रहे थे परन्तु वनमें श्रावकोंका अभाव होनेसे उन्हें प्रोषध करना पड़ता था । सो एकदिन स्वामीने उनसे कहा-वत्स ! निराहार तो रहना किसी तरह उचित नहीं है। इसलिये तुम वन में भी आहारके लिये जाओ। पएप कीर्तिताः शिष्या चे गुांशानुपतिनः ॥ १०॥ विशाम्रो विदम्मामाली निहितलोचनः । परीतो मुनिनन दक्षिणापथमुप | बोपनम्याचादेश समासदत् । योसपासनं जनं पाटपस्वाभिमान :: न तन मगाधीशमुकयोदशनमाश्य यारियादमा मद्री मता ॥ निय निरिलायोगान्योगी योगसराप । अन्नामा पत्र शुहाम्तरे || १४ || चन्द्रगुप्तरोनय गरने पगमनाम् । गागल सुमाग पोषय परम् ॥ १५॥ गुरानीपस्तदा लिदा पवार
SR No.009546
Book TitleBhadrabahu Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherJain Bharti Bhavan Banaras
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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