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________________ समूलभाषानुवाद । तीक्ष्ण बुद्धिशाली था तौभी गुरूके उपदेशसे उसने सर्व शास्त्र पढ़े । यह बात ठीक है कि मनुष्य चाहे कितना भी सूक्ष्मदर्शी नेत्र वाला क्यों न हो परन्तु प्रदीपके विना वहवस्तु नहिं देख सकता।सो भद्रबाहु-गुरु रूप कर्णधारके द्वारा चलाई हुई अपनी उत्तम बुद्धि रूप नौकामें चढ़कर विनय रूप वायुवेगसे सुशास्त्र रूप समुद्रके पार होगया ॥ १७ ॥ ॥ ७९ ॥ फिर कितने दिनों के अनन्तर प्रसन्न-मुखसरोज भद्रबाहुने करकमल जोड़कर गुणविराजित गुरुवरसे प्रार्थना की कि-प्रभो ! खामीकी कृपासे मुझे सब निर्मल विद्यायें संप्राप्त हुई । आप जन्म देने वाले माता पिताके भी असन्त उपकार करने वाले हैं। माता पिता तो जन्म जन्ममें फिर भी प्राप्त होसकते हैं किन्तु मनोभिलषित फलकी देने वाली और पूजनीय ये उत्तम विद्यायें बहुत ही दुर्लभ हैं ॥ ८० ॥ ८२ ॥ यदि आप आज्ञा देतो मैं अपने गृह पर जाऊं ? इस प्रकार सोशासाच्छास्त्राणि सूक्ष्मधारपि । एस्मेक्षणापि कि दीपं पिना वस्तु विलोक्यते [७८ ॥ सद्युदिनावमास्त्र गुस्लाविनोदिताम् । विनयानिलयोगास नानाभः पारमाप्तवान् ॥ ७९ ॥ ततो विज्ञापयामास प्रफुकानननीरजः । अमलोहन्य इस्लामी गरीयांसं गुमगुरुम् ॥१८॥ प्रभो ! प्रभुप्रसादेन विद्या सपा नयाऽमला। जन्मदेम्पोपि पितृभ्यो मशं त्वमुपकारकाः ॥ ८॥ पितर प्राणिमितच्या नन जन्मनि बन्मनि । अभीष्टफलदाऽभ्यां सदिया दुलमा जनः ॥ १ ॥ मा. ३
SR No.009546
Book TitleBhadrabahu Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherJain Bharti Bhavan Banaras
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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