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________________ भद्रवाहु-चरित्र है और शेष क्षुधादि सहित कभी देव नहीं कहे जासकते ॥ ६७ ॥ उसी जिन भगवानके मुख-चन्द्रसे विनिर्गत स्याहादरूप अमृतसे पूरित तथा परस्पर विरुद्धता रहित जो शास्त्र है वही तो शास्त्र है और दूसरे लोगोंके द्वारा कहा हुआ शास्त्र नहीं होसकता ॥६॥ और जो नानाप्रकारके ग्रन्थ (शास्त्र) सहित होकर भी निथ (परिग्रह रहित) हैं. तथा जो सम्यम्दर्शन सम्यज्ञान सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयसे विराजित हैं वेही यथार्थमें गुरु हैं और जो धनादिसे पराभिमृत हैं वे गुरु-नहीं होसकते ॥६९॥ इसलिये बुद्धिमानोंको दूसरी ओरसे बुद्धि हटाकर सत्यार्थ देव, शास्त्र, गुरुके श्रद्धानमें उसे लगानी उचित है । और सप्त तलोंका निश्चय करके उत्तम सम्यक्त्व स्वीकार करना चाहिये ॥७०॥ . . अन्तमें ग्रन्थकार कहते हैं कि-श्रेणिक महाराजके ' प्रश्न के उत्तरमें जैसाश्री वीजिनेन्द्रिने भद्रबाहु चरित्रका वर्णन किया था उसी तरह जिन शास्त्र के द्वारा समझकर "मैंने भी श्रीभद्रबाहु श्रुतकेवलीका चरित्र लिखा है।।७१॥ मनेन्दुसम्भूतं स्याहामृतमितम् । विरुद्धतागितं शाँवं शस्यते नान्यजल्पितम् ॥ १६ ॥ निप्रेन्यो प्रन्ययुजोऽपि मात्रितयराजितः । उहिरन्ति गुरुं रम्यं वमन्यं नैव प्रन्थिलम् ॥ १६९ ॥ श्रद्धातव्यं त्रयं चेति हित्वान्यमतदुमतिम् । सपा निखिल सत्लानि प्राय सम्यक्त्वमुत्तमम् ॥९७० ॥ श्रेणिकानतोऽबोचाया वीरजिनधरः। तबोदिल मयात्रापि शाला.श्रीजिनसूत्रतः ॥ ११॥ . .. . '.
SR No.009546
Book TitleBhadrabahu Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherJain Bharti Bhavan Banaras
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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