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________________ ८१. भद्रबाहु चरित्र होती हैं, बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे विरक्त होते हैं, तृण में मणिमें नगर में वनमें मित्रमें शत्रुमें सुखमें तथा दुःखमें सतत समान भावके रखने वाले होते हैं, मोह अभिमान तथा उन्मत्तता रहित होते हैं, धर्मोपदेशके समय तो बोलते हैं और शेष समयमें सदैव मौन रहते हैं, शास्त्ररूपी अपार पारावारके पारको प्राप्त हो चुके हैं, उनमें कितने तो अवधिज्ञानके धारक होते हैं, कितने मन:पर्ययज्ञानके धारक अवधिज्ञानके पहले पञ्च सुत्रकी - सुन्दर पिच्छी प्रतिलेखनके (शोधनके) लिये धारण करते हैं, सङ्घके साथ २ बिहार करते हैं, धर्म प्रभावना तथा उत्तम २ शिष्योंका रक्षण करते रहते हैं, और वृद्ध २ साधु समूहके रक्षण तथा पोषण में सावधान रहते हैं । इसीलिये उन्हें महर्षिलोग स्थविर कल्पी कहते हैं। इस भीषण कलिकालमें हीन संहनन के होने से वे लोग स्थानीय नगर ग्रामादिके जिनालय में रहते हैं । यद्यपि यह काल दुस्सह है शरीरका संहनन सुखेनले समानमतयः शश्वन्मोहमानमदोज्झिताः ॥ ११४ ॥ धर्मोपदेशतोऽ न्यत्र सदाऽभाषणधारिणः । श्रुतसागरपारीणाः केवनावधिबोधगाः ॥ ११५ ॥ ममः पविणः केचिद्गृहन्त्यवधितः पुरा चारु पश्चगुणं पिच्छे प्रतिलेखनहेतवे ॥ ॥ ११६ ॥ विरहन्ति गणः साकं नित्यं धर्मप्रभावनाम् । कुर्वन्ति च सुशिष्याणां प्रहणं पोषणं तथा ॥ ११७ ॥ स्थविरादिप्रतिवातप्राणपोषणचेतसः । ततः स्थावरकल्पस्थाः प्रोच्यन्ते सूरसत्तमः ॥ ११८ ॥ साम्प्रतं कलिकालेऽस्मिन्नसंहननत्वतः ।
SR No.009546
Book TitleBhadrabahu Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherJain Bharti Bhavan Banaras
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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