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________________ ३२४ कुदकुद-भारता निग्गंथमोहमक्का, बावीसपरीसहा जियकसाया। पावारंभविमुक्का, ते गहिया मोक्खमग्गम्मि।।८।। जो परिग्रहसे रहित हैं, पुत्र-मित्र आदिके मोहसे मुक्त हैं, बाईस परीषहोंको सहन करनेवाले हैं, कषायोंको जीतनेवाले हैं तथा पाप और आरंभसे दूर हैं वे मोक्षमार्गमें अंगीकृत हैं।।८० ।। उद्धद्धमज्झलोए, केई मज्झं ण अइयमेगागी। इयभावणाए जोई, पावंति हु सासयं मोक्खं ।।८१।। ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोकमें कोई जीव मेरे नहीं हैं, मैं अकेला ही हूँ इस प्रकारकी भावनासे योगी शाश्वत -- अविनाशी सुखको प्राप्त होते हैं।।८१ ।। देवगुरूणं भत्ता, णिव्वेयपरंपरा विचिंतंता। झाणरया सुचरित्ता, ते गहिया मोक्खमग्गम्मि।।८२।। जो देव और गुरुके भक्त हैं, वैराग्यकी परंपराका विचार करते रहते हैं, ध्यानमें तत्पर रहते हैं तथा शोभन -- निर्दोष आचारका पालन करते हैं वे मोक्षमार्गमें अंगीकृत हैं।।८२ ।। णिच्छयणयस्स एवं, अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं ।।८३।। निश्चय नयका ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा आत्माके लिए, आत्मामें तन्मयीभावको प्राप्त है वही सुचारित्र -- उत्तम चारित्र है। इस चारित्रको धारण करनेवाला योगी निर्वाणको प्राप्त होता है।।८३ ।। पुरिसायारो अप्पा, जोई वरणाणदंसणसमग्गो। जो झायदि सो जोई, पावहरो भवदि णिबंदो।।८४।। पुरुषाकार अर्थात् मनुष्यशरीरमें स्थित जो आत्मा योगी बनकर उत्कृष्ट ज्ञान और दर्शनसे पूर्ण होता हुआ आत्माका ध्यान करता है वह पापोंको हरनेवाला तथा निर्द्वद्व होता है।।८४ ।। एवं जिणेहिं कहियं, सवणाणं सावयाण पुण पुणसु। संसारविणासयरं, सिद्धियरं कारणं परमं ।।८५।। इस प्रकार जिनेंद्र भगवान्के द्वारा बार-बार कहे हुए वचन मुनियों तथा श्रावकोंके संसारको नष्ट करनेवाले तथा सिद्धिको प्राप्त करानेवाले उत्कृष्ट कारणस्वरूप हैं।।८५ ।। गहिऊण य सम्मत्तं, सुनिम्मलं सुरगिरीव निक्कंपं। तं झाणे झाइज्जइ, सावय दुक्खक्खयट्ठाए।।८६।। हे श्रावक! (हे सम्यग्दृष्टि उपासक अथवा हे मुने!) अत्यंत निर्मल और मेरुपर्वतके समान
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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