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________________ २९८ __ कुंदकुंद-भारती जो मुनि पुण्यका श्रद्धान करता है, प्रतीति करता है, उसे अच्छा समझता है और बार-बार उसे धारण करता है उसका यह सब कार्य भोगका ही कारण है, कर्मोके क्षयका कारण नहीं है।।८४ ।। अप्पा अप्पम्मि रओ, रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो। संसारतरणहेद, धम्मोत्ति जिणेहिं णिद्दिटुं ।।८५।। रागादि समस्त दोषोंसे रहित होकर जो आत्मा आत्मस्वरूपमें लीन होता है वह संसारसमुद्रसे पार होनेका कारण धर्म है ऐसा श्री जिनेंद्रदेवने कहा है।।८५।। अह पुण अप्पा णिच्छदि, पुण्णाई करेदि णिरवसेसाई। ___ तह वि ण पावदि सिद्धिं, संसारत्थो पुणो भणिदो।।८६।। जो मनुष्य आत्माकी इच्छा नहीं करता -- आत्मस्वरूपकी प्रतीति नहीं करता वह भले ही समस्त पुण्यक्रियाओंको करता हो तो भी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता है। वह संसारी ही कहा गया है।।८६।। एएण कारणेण य, तं अप्पा सद्दहेहि तिविहेण। जेण य लभेह मोक्खं, तं जाणिज्जह पयत्तेण।।८७।। इस कारण तुम मन वचन कायसे उस आत्माका श्रद्धान करो और यत्नपूर्वक उसे जानो जिससे कि मोक्ष प्राप्त कर सको।।८७।। मच्छो वि सालिसिक्थो, असुद्धभावो गओ महाणरयं। इय णाउं अप्पाणं, भावह जिणभावणं णिच्चं ।।८८।। अशुद्ध भावोंका धारक शालिसिक्थ नामका मच्छ सातवें नरक गया ऐसा जानकर हे मुनि! तू निरंतर आत्मामें जिनदेवकी भावना कर ।।८८।। बाहिरसंगच्चाओ, गिरिसरिदरिकंदराई आवासो। सयलो णाणज्झयणो, णिरत्थओ भावरहियाणं।।८९।। भावरहित मुनियोंका बाह्य परिग्रहका त्याग, पर्वत, नदी, गुफा, खोह आदिमें निवास और ज्ञानके लिए शास्त्रोंका अध्ययन यह सब व्यर्थ है।।८९।। भंजसु इंदियसेणं, भंजसु मणोमक्कडं पयत्तेण। मा जणरंजणकरणं, बाहिरवयवेस तं कुणसु।।१०।। तू इंद्रियरूपी सेनाको भंग कर और मनरूपी बंदरको प्रयत्नपूर्वक वश कर। हे बाह्यव्रतके वेषको धारण करनेवाले! तू लोगोंको प्रसन्न करनेवाले कार्य मत कर।।९० ।। णवणोकसायवग्गं, मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धीए। चेइयपवयणगुरूणं, करेहिं भत्तिं जिणाणाए।।९१।।
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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