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________________ अष्टपाहुड २७५ ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण तथा प्रतिष्ठापन ये पाँच समितियाँ संयमकी शुद्धिके लिए श्री जिनेंद्रदेवने कही हैं। ।३७ ।। भव्वजणबोहणत्थं, जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं। णाणं णाणसरूवं, अप्पाणं तं वियाणेहि।।३८।। भव्य जीवोंको समझानेके लिए जिनमार्गमें जिनेंद्रदेवने जैसा कहा है वैसा ज्ञान तथा ज्ञानस्वरूप आत्माको हे भव्य! तू अच्छी तरह जान।।३८ ।। जीवाजीवविभत्ती, जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी। रायादिदोसरहिओ, जिणसासणमोक्खमग्गुत्ति।।३९।। जो मनुष्य जीव और अजीवका विभाग जानता है -- शरीरादि अजीव तथा आत्माको जुदा-जुदा जानता है वह सम्यग्ज्ञानी है। जो रागद्वेषसे रहित है वह जिनशासनमें मोक्षमार्ग है ऐसा कहा गया है।।३९ ।। दंसणणाणचरित्तं, तिण्णिवि जाणेह परमसद्धाए। जं जाणिऊण जोई, अइरेण लहंति णिव्वाणं।।४०।। दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनोंको तू अत्यंत श्रद्धासे जान। जिन्हें जानकर मुनिजन शीघ्रही निर्वाण प्राप्त करते हैं।।४०।। पाऊण णाणसलिलं, णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता। हुंति सिवालयवासी, तिहुवणचूडामणी सिद्धा।।४१।। जो पुरुष ज्ञानरूपी जलको पीकर निर्मल और अत्यंत विशुद्ध भावोंसे संयुक्त होते हैं वे शिवालयमें रहनेवाले तथा त्रिभुवनके चूडामणि सिद्ध परमेष्ठी होते हैं।।४१।।। णाणगुणेहि विहीणा, ण लहंते ते सुइच्छियं लाहं। इय णाउं गुणदोसं, तं सण्णाणं वियाणेहि।।४२।। जो मनुष्य ज्ञानगुणसे रहित हैं वे अपनी इष्ट वस्तुको नहीं पाते हैं इसलिए गुणदोषोंको जाननेके लिए सम्यग्ज्ञानको तू अच्छी तरह जान।।४२।। चारित्तसमारूढो, अप्पासु परं ण ईहए णाणी। पावइ अइरेण सुहं, अणोवमं जाण णिच्छयदो।।४३।। जो मनुष्य चारित्रगुणसे युक्त तथा सम्यग्ज्ञानी है वह अपने आत्मामें परपदार्थकी इच्छा नहीं करता है ऐसा मनुष्य शीघ्र ही अनुपम सुख पाता है यह निश्चयसे जान।।४३ ।। एवं संखेवेण य, भणियं णाणेण वीयरायेण। सम्मत्तसंजमासय, दुण्हं पि उदेसियं चरणं।।४४।।
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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