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________________ -पाए मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञानके विषयमें मूढ़ होनेके कारण निर्वाणको नहीं पाते हैं।।१०।। वच्छल्लं विणएण य, अणुकंपाए सुदाणदच्छाए। मग्गणगुणसंसणाए, उवगृहण रक्खणाए य।।११।। एएहि लक्खणेहिं य, लक्खिज्जइ अज्जवेहिं भावहिं। जीवो आराहतो, जिणसम्मत्तं अमोहेण।।१२।। मोहका अभाव होनेसे जिनोपदिष्ट सम्यक्त्वकी आराधना करनेवाला सम्यग्दृष्टि पुरुष वात्सल्य, विनय, दान देने में दक्ष, दया, मोक्षमार्गकी प्रशंसा, उपगूहन, संरक्षण -- स्थितीकरण और आर्जवभाव इन लक्षणोंसे जाना जाता है।।११-१२।। माना उच्छाहभावणासंपसंससेवा कुदंसणे सद्धा। अण्णाणमोहमग्गे, कुव्वंतो जहदि जिणधम्मं ।।१३।। अज्ञान और मोहके मार्गरूप मिथ्यामतमें उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा और श्रद्धा करता हुआ पुरुष जिनोपदिष्ट सम्यक्त्वको छोड़ देता है।।१३।। उच्छाहभावणासंपसंससेवा सुदंसणे सद्धा। ण जहदि जिणसम्मत्तं, कुव्वंतो णाणमग्गेण।।१४।। समीचीन मतमें ज्ञानमार्गके द्वारा उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा और श्रद्धाको करता हुआ पुरुष जिनोपदिष्ट सम्यक्त्वको नहीं छोड़ता है।।१४ ।। अण्णाणं मिच्छत्तं, वज्जहि णाणे विसुद्धसम्मत्ते। अह मोहं सारंभं, परिहर धम्मे अहिंसाए।।१५।। हे भव्य! तू ज्ञानके होनेपर अज्ञानको, विशुद्ध सम्यक्त्वके होनेपर मिथ्यात्वको और अहिंसाधर्मके होनेपर आरंभसहित मोहको छोड़ दे।।१५।। बाद पव्वज्ज संगचाए, पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे। होइ सुविसुद्धझाणं, णिम्मोहे वीयरायत्ते।।१६।। हे भव्य! तू परिग्रहका त्याग होनेपर दीक्षा ग्रहण कर, और उत्तम संयमभावके होनेपर श्रेष्ठ तपमें प्रवृत्त हो, क्योंकि मोहरहित वीतरागभावके होनेपर ही अत्यंत विशुद्ध ध्यान होता है।।१६।। मिच्छादसणमग्गे, मलिणे अण्णाणमोहदोसेहिं। बझंति मूढजीवा, मिच्छत्ताबुद्धिउदएण।।१७।। मूढजीव, अज्ञान और मोहरूपी दोषोंसे मलिन मिथ्यादर्शनके मार्गमें मिथ्यात्व तथा मिथ्याज्ञानके
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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