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________________ अष्टपाहुड २६७ ३।। दिगंबर मुद्राके सिवाय जो अन्य लिंगी है, सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शनसे संयुक्त है तथा वस्त्रमात्रके द्वारा परिग्रही हैं वे उत्कृष्ट श्रावक इच्छाकार कहने योग्य हैं अर्थात् उनसे इच्छामि या इच्छाकार करना चाहिए।।१३।। इच्छायारमहत्थं, सुत्तठिओ जो हु छंडए कम्म। ठाणे ठिय सम्मत्तं, परलोयसुहंकरो होई।।१४।। जो पुरुष सूत्रमें स्थित होता हुआ इच्छाकार शब्दके महान् अर्थको जानता है, आरंभ आदि समस्त कार्य छोड़ता है और सम्यक्त्वसहित श्रावकके पदमें स्थिर रहता है वह परलोकमें सुखी होता है।।१४।। अह पुण अप्पा णिच्छदि, धम्माइं करेइ णिरवसेसाइं। तहवि ण पावइ सिद्धिं, संसारत्थो पुणो भणिदो।।१५।। जो आत्माको तो नहीं चाहता है किंतु अन्य समस्त धर्मादि कार्य करता है वह इतना करनेपर भी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता है वह संसारी कहा गया है।।१५।। एएण कारणेण य, तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण। जेण य लहेइ मोक्खं, तं जाणिज्जइ पयत्तेण।।१६।। इस कारण उस आत्माका मन वचन कायसे श्रद्धान करो। क्योंकि जिससे मोक्ष प्राप्त होता है उसे प्रयत्नपूर्वक जानना चाहिए।।१६।। बालग्गकोडिमेत्तं, परिगहगहणं ण होइ साहूणं। भुंजेइ पाणिपत्ते, दिण्णण्णं इक्कठाणम्मि।।१७।। मुनियोंके बालके अग्रभागके बराबर भी परिग्रहका ग्रहण नहीं होता है वे एक ही स्थानमें दूसरोंके द्वारा दिये हुए प्रासुक अन्नको अपने हाथरूपी पात्रमें ग्रहण करते हैं।।१७।। र जहजायरूवसरिसो, तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्तेसु। जइ लेइ अप्पबहुयं, तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ।।१८।। जो मुनि यथाजात बालकके समान नग्न मुद्राके धारक हैं वे अपने हाथमें तिलतुषमात्र भी परिग्रह ग्रहण नहीं करते। यदि वे थोड़ा बहुत परिग्रह ग्रहण करते हैं तो निगोद जाते हैं अर्थात् निगोद पर्यायमें उत्पन्न होते हैं।।१८।। जस्स परिग्गहगहणं, अप्पं बहयं च हवइ लिंगस्स। ___सो गरहिउ जिणवयणे, परिगहरहिओ निरायारो।।१९।। जिस लिंगमें थोड़ा बहुत परिग्रहका ग्रहण होता है वह निंदनीय लिंग है। क्योंकि जिनागममें
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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