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________________ खैकम् ।। भाषाटीकासमेतः । तपस्विपुष्पयोश्चैव मतं स्नानचिकित्सकम् ॥ २४८ ॥ इति कविपण्डितश्रीश्रीधरसेनविरचिते मुक्तावलीत्यपराभिधाने विश्वलोचने स्वरकाद्यादिकान्तवर्गः । अथ खान्तवर्गः। खैकम् । खमाकाशे दिवि सुखे बुद्धौ संवेदने पुरे । शुन्यवदिन्द्रियक्षेत्रे कुशाहलफले कचित् ॥ १ ॥ खद्वितीयम् । उखा निरुद्धभार्यायामुखा स्थाल्यामपि स्मृता । नखस्तु करजे शुक्तौ गन्धद्रव्ये नखी नखम् ॥ २ ॥ न्युङ्खः सम्यग्मनोज्ञे च साम्नः षट्प्रणवेष्वपि । प्रेवाः पर्यटने नृत्ये दोलायां वाजिनां गतौ ॥ ३ ॥ स्नानचिकित्सक-तपस्वी, पुष्प, इंद्रिय, क्षेत्र, कुश, हलकी फाल, ( पुं० न० ) (॥ २४८ ॥ (न०) ॥ १ ॥ इस प्रकार कविपंडित श्रीश्रीधरसेन- खदितीय। विरचित मुक्तावली ऐसा दूसरा उखा-अनिरुद्धकी स्त्री, स्थाली (तंदुल नामवाला विश्वलोचनकी __ आदि पकानेका वर्तन) (स्त्री० ) भाषाटीकामें स्वरकाद्यादिकान्त कांतवर्ग नख-नख ( नाखून ) सौपी, (पुं०) समाप्तहुवा ॥ __ गन्धद्रव्य, नख (स्त्री० न०) ॥२॥ न्युत-बहुत सुन्दर, सामवेदके छः अथ खान्तवर्गः। | ॐकार, (पुं० ) प्रेखा-देशान्तरोंमें जाना, नृत्य, .हिंख-आकाश, वर्ग, सुख, बुद्धि, पीडा, डोला, अश्वोंकी गतिविशेष, (स्त्री.) पुर, पोल ( शून्य) वाला द्रव्य, ॥३॥ खैक । "Aho Shrutgyanam"
SR No.009534
Book TitleVishwalochana Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Sharma
PublisherBalkrishna Ramchandra Gahenakr
Publication Year1912
Total Pages436
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Dictionary
File Size9 MB
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