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________________ मेषमहोदये देवासक्तजपादिशक्तिजनितो हेतुस्तृतीयोऽप्ययं, सिद्धः शुद्धधियां प्रसिद्धिभवनं शास्त्रे तदायं मुदे ॥२८॥ इति श्री मेघमहोदये वर्षप्रबोधापरनाम्नि महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते देवाधिकारस्तृतीयः॥ यक प्रसिद्धि का भवन (स्थान) रूप यह हेतु शुद्ध बुद्धि वाले पुरुषों के प्रानंद के लिये है।। २८ ॥ इतिश्रीसौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत पादलिप्तपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्य जैनेन विरचितया मेघमहोदये बालावबोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकितः तृतीयो देवाधिकार: । अथ चतुर्थः संवत्सराधिकारः। संवत्सरः सरसधान्यविधिं विधेयादु, धाराधरेण धरणेभरणेन सद्यः । गन्धछिपेन्द्र इव पुष्करपद्मशाली, श्रीनाभिसम्भवजिनेश्वरसन्निधानात् ॥१॥ द्रव्यतः क्षेत्रतो भावात् त्रिविधं वृष्टिकारणम् । संकलस्याथ कालोऽपि तुर्यो हेतुरुदीयते ॥२॥ मदोन्मत्त हाथी के जैसे कमल के सदृश कान्ति वाले श्रीऋषभदेवजिनेश्वर की कृपा से संवत्सर शीघ्र ही पृथ्वी का पोषण करने वाले बरसात से अच्छे रसवाले धान्य को उत्पन्न करें ॥ १ ॥ द्रव्य क्षेत्र और भाव ये तीन प्रकार वृष्टि के कारण हैं, गणना में काल को भी चोथा कारण कहा है ॥ २ ॥ शालिवाहन शक, विक्रम संवत्सर, कर्क मकरादि अयन का आद्य "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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