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________________ भैषमहोदये निचुलेनावृष्टिमयं व्याधिभयं भवति कुटजेन ॥ ४७ ॥ दूर्वाकुशकुसुमाभ्यामिक्षुर्वहिच कोविदारेण । श्यामालताभिष्टद्वद्या बन्धक्यो वृद्धिमायान्ति ॥ ४८ ॥ यस्मिन् देशे स्निग्धनिछिद्रपत्राः, सन्दृश्यन्ते वृक्षगुल्मा लताश्च । तस्मिन् वृष्टिः शोभना सम्प्रदिष्टा, रूक्षर स्पैरल्पमम्भः प्रदिष्टम् ॥ ४६ ॥ इतिकुसुमैर्धान्यादिनिष्पत्तिलक्षणं वाराहसंहितायाम् ॥ (ive) लोके पुनरेवम्- माके गेहूं नींव तिल, व्रीहि कहै फ्लास । कंधेरी फूली नहीं, मुंगा केही ग्रास ॥ ५० ॥ पाठन्तरे- आके गेहूं कयरतिल, कंटालीये कपास । सर्व वसुंधर नीपजै, जो चिहुँ दिसि फलै पलास ॥५१॥ अथ वृक्षरूपम् राष्ट्रविभेदस्त्वनौ बालवधूटीव कुसुमिते पाले । अवृष्टिका भय और कुटज से व्याधिका भय, इनकी वृद्धि होती है ॥४७॥ दूब और कुश की वृद्धि से देखकी दृद्धि, कचनारसे अनिका भय, श्यामलता की वृद्धिले व्यभिचारिणी स्त्रियोंकी वृद्धि होती है ॥ ४८ ॥ जिस देशमें जिस समय वृक्ष गुल्म और लता ये चिकने और छिद्र रहित पत्ते से युक्त दिखाई दें उस देशमें उस समय अच्छी वर्षा होगी, तथा रूखे और छिद युक्त हो तो थोड़ी वर्षा होती है ॥ ४६ ॥ आकी वृद्धि से गेहूँ, नींव से तिन, पलास से व्रीहि ( चावल ) की कंधेरी फूले नहीं तो मूंग की आशा ही रखना ॥५०॥ आकसे गेहूँ, कयर से तिल और कंडाली से कपास ये सब जगत् में उत्पन्न होते है, यदि चारों ही दिशा में पास फलें तो ॥ ५१ ॥ वृद्धि होती है और "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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