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________________ सूर्यचारकथनम् (३९५) समयमय दुर्भिदं चित्राद्यष्टसु दुःखदम् ॥४२॥ कर्णादौ धिष्ण्यदशके सुभिक्षं सततं भवेत् । अमावास्या हि नक्षत्रं विमृश्य फलमादिशेत् ॥४३॥ संक्रान्तेः सप्तमे चन्द्रे कर्तव्यो धान्यसङ्ग्रहः । हिमास्यां द्विगुणो लाभ-स्तदूर्ध्वं च विनश्यति ॥४४॥ बृहरक्षेषु जायन्ते द्वादशाप्यत्र संक्रमाः ! तत्र वर्षे समग्रेऽपि शुभकालो भवेद् ध्रुवम् ॥४५॥ ऊर्ध्व संक्रमणे मित्रे शुभयुक्ते च पूर्वकात् । त्रिवारे तूर्यके धिष्ण्ये बृहक्षेऽर्कसंक्रमः ॥४६॥ यदा भवेत् तदा वाच्यं सुभिक्षं सततं क्षितौ । रात्रौ सुप्ते च सकूरे पापविद्धेक्षितेऽपि वा ॥४७॥ पूर्वात् तृतीयपश्चः लघुभे यदि संक्रमः । तदा भवेन्महल्लोके दुर्भिक्षं कष्टकारकम् ॥४८॥ चित्रादि आठ नक्षत्रोंमें संक्रमण हो तो दुर्भिक्ष हो ॥४२॥ और श्रवणादि दश नक्षत्रों में संक्रमण हो तो हमेशा सुभिक्ष होता है ॥४३॥ संक्रांति से चंद्रमा सातवां हो तो धान्यका संग्रह करना चाहिये, दो महीने दुगुना लाभ हो और सातवैसे अधिक हो तो धान्यका विनाश हो ॥४४॥ यदि बारोंही सूर्यसंक्रांतियें जिस वर्ष में बृहत्संज्ञक नक्षत्रों में संक्रमण हो तो उस वर्ष में निश्वयसे सुभिक्ष होता है ॥४५॥ ऊर्ध्वसंज्ञक संक्रांतिमें सूर्य शुभ ग्रहसे युक्त हो तथा पूर्वकी संक्रांतिसे तीसरा या पांचवां बृहत्संज्ञक नक्षत्रमें संक्रमण हो ॥४६॥ तो पृथ्वी पर निरंतर मुभिक्ष होता है । रात्रि में सुप्त संक्रांति कूर प्रहसे युक्त हो, वेधित हो या दृष् हो ॥४७॥ तथा प्रथम संक्रांतिसे तीसरा पांचवां लघुसंज्ञक नक्षत्र में संक्रमण होतो जगत् में दुःख देनेवाला ऐसा दुर्भिक्ष धनिष्टा प्रादि पांच नक्षत्र ये पंद्रह नक्षत्रोंकी पंचकसंज्ञा कही है । यह वस्तुओंका अर्घ (मूल्य) का निर्णय के लिये बहुंत उपयोगी है। "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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