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________________ मेघमहोदये प्रकृतेश्चान्यथा भावे उत्पातः स त्वनेकधा । स यत्र तत्र दुर्भिक्ष देशराज्यप्रजाक्षयः ॥१५॥ देवानां वैकृतं माझं चित्रेष्वायतनेषु च । ध्वजश्चोर्ध्वमुखो यत्र तत्र राष्ट्राद्युपप्लवः॥ १६ ॥ राजादिः कृषिजीवीचेद् विधर्मी पशुपालकः। देवताप्रतिमाभङ्गो लिङ्गिविप्रवधस्तथा ॥१७॥ ऋतौ विपर्ययो यत्र तत्र देशभयं भवेत् । देवध्वंसः प्रजापीडा दुर्भिक्षं विप्रघातकः ॥१८॥ जलस्थलपुरारण्य-जीवान्यस्थानदर्शनम् । शिवाकाकादिकाक्रन्दः पुरमध्ये पुरच्छिदे ॥१९॥ छत्रनाकारसेनादि-दाहाद्यैर्नृपभीः पुनः । अस्त्राणां ज्वलनं कोशानिर्गमः स्वयमाहवे ॥२०॥ हो तब उसको उत्पात कहते हैं , वह अनेक प्रकार के हैं । उत्पात जहाँ होता है वहाँ दुष्काल पड़ता है, तथा देश राज्य और प्रजा का नाश होता है ॥१५।। जहाँ रंगीन तसबीरों में और देव मंदिरों में देवों की मूर्तियों के स्वरूप में फेरफार या भंग हो और ध्वजा ऊंची उडती देख पडे तो राष्ट्र (देश ) आदि में उपद्रव होते हैं ॥१६॥ राजा आदि खेती करने लगें, विधर्मी लोग पशु पालने लगें, देव की प्रतिमा का भंग हो, तब लिंगी ( सन्यासी) और ब्राह्मण का नाश होता है ॥१७॥ जहां ऋतु में फेरफार हो वहां देशमें भंय, देवालय का नाश, प्रजा को दुःख, दुकाल और ब्राह्मण का नाश होता है ॥१८॥ जिस नगर में जलचर जीत्र भूमि पर और भूचर जीव जल में, नगरके जीव जंगल में, और जंगल के जीव नगर में स्वाभाविक रीति से देखने में आवे, गीदड (शियाल ) और कौवे बहुत शब्द करते देखपड़े तो उस नगर का नाश होता है ॥१६॥ छत्र किला और सेना "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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