SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१८६) मीने सुभिक्षं कुशलं समर्प धान्यं धनस्यात्पतयापि वृष्टया ॥११॥ मागसिरे गुरु प्रथमे उगि तेणे पक्खि । ईति पडे उण्हालीइ जो राखे तो रक्खि ॥ १२ ॥ कलह वसेण सुंदरि कत्तियमासम्मि किष्णपक्खमि । गरुडिडिथियो गुरु प्रथमे जाणिज्जइ छत्तभंगो वि ।। १३॥ मार्गशीर्षे गुरोरस्तं भृगुपुत्रस्य चोदयः । तदा जगत्स्थितिः सर्वा विपरीता प्रजायते ॥ १४॥ इति ॥ अथ मेघविचार: मेघा इह द्वादशधा प्रबुद्धा - दयः किलोक्ता गुरुचारशास्त्रे । नागाः पुनस्ते ह्यभिधानरागा दुदाहृता रामविनोदनानि ॥ १॥ तथा च तद्ग्रन्थे द्वादशधा नागा:गताब्दा द्वियुताः सूर्य- भक्तास्तत्र विशेषतः । सुबुद्धो नन्दिसारी च कर्कोटकः पृथुश्रवा ॥२॥ स्त हो तो सुभिक्ष तथा कुशल हो और थोड़ी वर्षा होने पर भी धान्य सस्ते हो ॥ ११ ॥ मार्गशीर्ष में गुरुका अस्त हो और उसी ही पक्षमें उदय हो तो ग्रिष्मऋतु में ईति का उपद्रव हो ॥ १२ ॥ कार्त्तिक कृष्णपक्ष में गुरु का अस्त हौ और अगस्ति का उदय हो तो छत्रभंग हो ॥ १३ ॥ मार्गशीर्ष में गुरु का अस्त हो और भृगुसुत (अगस्ति) का उदय हो तो सब जगत् की स्थिति विपरीत हो ॥ १४ ॥ इति ॥ गुरुवार के शास्त्र में प्रबुद्धादि बारह प्रकारके मेघ कहे हैं और रामविनोद नामके शास्त्र में भी मेघका अधिकार कहा है ॥ १ ॥ रामविनोद अंथ में गतवर्ष में दो मिला कर बारहसे भाग देना, जो शेष बचे वह "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy