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________________ षष्ठ कल्लोलः ७७ ज्ञेज्यौ बुधगुरू, अत्र सप्तमेऽर्कारांशस्थौ सूर्यकुजयोरंशगतौ यदि तदा एका स्त्री । वाथवार्कीन्दू अत्र सप्तमे यदि स्यातां तदा परप्रिया पुनर्भू स्यात् । अथवा शुक्रेज्यौ शुक्रगुरू सप्तमे यदि तदा स्ववर्णा स्वकीयो वर्णो यस्याः सा सवर्णा । अथार्कीन्द्वाराः शनिचन्द्रकुजसूर्यैः सप्तमस्थैरन्यवर्णजा। अन्यस्मिन् वर्णे जायतेस्म या स्त्री सा भवेत्तस्य भार्या । शास्त्रान्तरादत्र सप्तमे शुक्रेन्द्वोरथवानयोर्वर्गे सप्तमेऽथवा आभ्यां दृष्टेऽथवा युक्ते सति बहुस्त्रीको भवति ।।५।। बुध और गुरु ये दोनों सूर्य या मङ्गल के नवमांश के होकर यदि सातवें स्थान में हों तो एक स्त्री होवे । शनि और चन्द्रमा सातवें स्थान में हों तो पर स्त्री मिले। गुरु और शुक्र सातवें स्थान में हों तो अपने जाति की स्त्री मिले। शनि, चन्द्रमा, मङ्गल और सूर्य सातवें स्थान में हों तो दूसरी जाति की स्त्री मिले । अन्य शास्त्रों में कहा है कि-- सातवें स्थान में शुक्र और चन्द्रमा हो. या इन दोनों में से एक के षड्वर्ग का सातवां भवन हो, या इन दोनों की दृष्टि हो तो जातक अधिक स्त्रो वाला होवे ॥शा अथाभार्यापुत्रत्वज्ञानमाह विस्त्रोसुतोऽन्त्यास्ताङ्गस्थैः पापै/स्थे च दुविधौ । कामगाभ्यां यमाराभ्यां स चैकस्थेन्दुशुक्रयोः॥६॥ पापैर्यथासम्भवमन्त्यास्ताङ्गस्थैर्व्ययसप्तमलग्नस्थैः, दुविधौ क्षीणेन्दौ धीस्थे पञ्चमस्थे सति विस्त्रीसुतो विगता स्त्री सुताश्च यस्य स तस्य भार्या न पुत्रो न च स्यादिति वाच्यम् । अथ यमाराभ्यां शनिकूजाभ्यां कामगाभ्यां सप्तमस्थाभ्यां, यत्र तत्र राशौ एकस्थेन्दुशुक्रयोः सतोश्चशब्दादभार्यापुत्रश्च स्यात् ।।६।। जिसकी जन्म कुण्डली में पाप ग्रह बारहवां, सातवां और लग्न इन तीनों स्थान में हो, तथा क्षीण चन्द्रमा पांचवें स्थान में हो तो जातक को स्त्री और पुत्र की प्राप्ति न होवे। एवं शनि और मंगल सातवें स्थान में हो, अथवा चन्द्रमा और शुक्र एक राशि का होकर किसी भी स्थान में रहे हो तो स्त्री और पुत्र की प्राप्ति न होवे ॥६॥ चिः अथ चित्रकर्मादिजीवियोगद्वयमाह - लग्नस्थाकॊक्षिते सज्ञे त्र्यंशे शिल्पादिजीविकः। चित्र्यङ्गऽब्जे मदे सूर्ये व्ययाथस्थयमारयोः ॥७॥ त्र्यंश इति त्र्यंशो द्रेष्काणो यस्य राशिसम्बन्धी भवेत्, तत्र राशौ सज्ञे सुबुधे लग्नस्थार्कीक्षिते लग्नस्थो य आर्किः शनिस्तेनेक्षिते दृष्टे शिल्पादि जीविकः चित्रकर्मादिविज्ञानाजीवीत्यर्थः। अब्जे चन्द्र, अङ्गगे लग्नस्थे सति, सूर्ये मदेऽस्तस्थे "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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