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________________ प्रथम कल्लोलः ३ बलवान् होकर रहे हो और लग्न को देखते हो और अन्य ग्रह धनु के नवमांश में हो तो गर्भ में पांच, सात या दस संतान कहना ॥२०॥ प्रथाधिकाङ्गमूकयोर्योंगानाह कोणस्थे ज्ञेऽबलैरन्यै-द्विगुणांघ्रिभुजाननः ।। भसन्धिस्थः खलैरिन्दौ गोस्थे पापेक्षिते वाक् ॥२१॥ गर्भप्रश्ने ज्ञे बुधे कोणस्थे पञ्चमनवमस्थे अन्यैरपरैः सर्वः पञ्चभिः षड्भिर्या यत्र तत्र गतैबुधवय॑मबलैनिर्बलैः सद्भिद्विगुणांघ्रिभुजाननः, द्विगुणौ अंघ्री पादौ करौ हस्तौ च द्विगुणमाननं मुखं च यस्य स इति को भावार्थः ? गर्भे चतुष्पदश्चतुभुज द्विमुखः एकोदरः । अथवा खलैः पापैः रविशनिकुजैर्भसन्धिस्थैः कर्कवृश्चिकमीनानामन्त्यनवांशस्थैर्यथासम्भवमिन्दौ चन्द्र गोस्थे वृषस्थे पापेक्षिते रविकुजशनिदृष्टे अवाक्, न विद्यते वाक् जल्पनं यस्य सोऽवाक् मूक इत्यर्थः । अर्थाच्चन्द्र शुभैर्बलिभिदृष्टे चिरकालाज्जल्पति । पापैदृष्टे न वदति मूक एव । भसन्धिस्थै पापैः स चन्द्रः शुभदृष्टैर्जडः इति ॥२१॥ गर्भ के प्रश्न लग्न के नवें या पांचवें स्थान में बुध रहा हो और बाकी सब ग्रह निर्बल होकर किसी भी स्थान में रहे हों तो बालक चार हाथ, चार पैर, दो मुख और एक पेट वाला होता है । एवं पाप ग्रह - रवि, मंगल और शनि ये कर्क, वृश्चिक और मीन के अंतिम नवमांश में राशि संधिगत हो और ये पाप ग्रह वृष राशि में रहे हुए चंद्रमा को देखते हो तो बालक गूगा होता है। परन्तु चन्द्रमा को बलवान् शूभ ग्रह देखते हों तो वह बालक कुछ विलम्ब से बोलने लगता है। कर्क, वृश्चिक और मीन राशि के अन्तिम नवमांश में रहे हुए राशि संधिगत पापग्रहों को और चन्द्रमा को शुभ ग्रह देखते हों तो वह बालक जड़ होता है ॥२१॥ अथ सदन्तकुब्जयोर्योगानाह ज्ञस्य भस्थौ तदंशस्थौ वाराऊदन्तसंयुतः । (कर्कलग्नेऽङ्गगे) स्वः चन्द्रऽङ्गगे दृष्टे वाकिरणारेण कुब्जकः॥२२॥ प्रारार्की कुजशनी यत्र तत्र स्थाने ज्ञस्य बुधस्य भस्थौ कन्यामिथुनयोरेकतरराशिस्थौ, वा अथवा तदंशस्थौ कन्यामिथुनांशस्थौ यदि तदा दन्तसंयुतो जायते। मिथुने मिथुनांशस्थौ कुजार्की ।। मिथुनराशौ कन्यांशस्थौ ।२। एवं कन्याराशौ कन्यांशस्थौ ।३। कन्याराशी मिथुनांशस्थौ ।४। अथ भौमो मिथुनराशौ ज्ञनवांशे, शनिः कन्याराशौ ज्ञनवांशस्थो वा ।। शनिमिथुनस्थो ज्ञनवांशे, भौमः कन्यास्थो ज्ञनवांशे ।६। एवं षड्योगा भवन्ति । अथ चंद्र स्वः स्वराशौ "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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