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________________ ११४ 'जन्मसमुद्रः युतिर्योगो वा यस्य स सदृग्युतिस्तत्र चन्द्र क्रूरैरदृष्टे युते वा स दीर्घायु: । वाथवा अब्जे चन्द्र खे दशमस्थे सदृग्युतौ च सतां शुभानां दृग्दृष्टियु तिर्योगो वा यस्य स सदृग्युतिस्तत्र चन्द्र क्रूरैरदृष्टेऽयुतेवा स दीर्घायुः । वाथवा शुभैर्ग्रहैरम्बुगैश्चतुर्थस्थैः पुष्टै भे च सति दीर्घायुर्वर्षशतायुर्भवति ।।२१।। ___ गुरु केन्द्र में रहा हो, उसको निष्पाप शुक्र देखता हो, अर्थात् केन्द्र में रहा हुआ गुरु को शुभ ग्रह शुक्र देखता हो, पाप ग्रह कोई न देखता हो तो पूर्ण प्रायुष जानना ।। अथवा बृहस्पति ग्यारहवें स्थान में हो और पूर्ण चन्द्रमा कन्या या मिथुन राशि में हो तो दीर्घ प्रायुष्य जानना ।२। अथवा चन्द्रमा दसवें स्थान में हो, उसके साथ शुभ ग्रह हो या शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो पाप ग्रह कोई देखते न हों तो दीर्घ आयुष जानना ।। अथवा बलवान शुभ ग्रह चोथे या ग्यारहवें स्थान में हों तो दीर्घ आयुष्य जानना ॥२१॥ अथ शास्त्रस्तुतिमाह दैवज्ञानां चलद्दीपो द्रष्टुकर्म शुभाशुभम् । जन्माब्धि रितु पोतो वेदर्षीन्दुमिति प्रियः ॥२२॥ एषो जन्मसमुद्रो नाम ग्रन्थो दीप: प्रदीप इव वर्तते । केषां दैवज्ञानां नैमित्तकानां किं विशिष्टश्चलन हस्तगतः। किं कत्तुं जातस्य बालस्य शुभाशुभं सम्पदापदू पं कर्म द्रष्टु विलोकयितु। यथा हस्तस्थिते दीपे घटपटादिद्रव्याणि दृश्यन्ते, तथा तस्मिन् शास्त्रे कण्ठस्थिते जन्मतः सुखदुःखादिकं यादृशं भवेत्, तादृशं सर्वं दरीदृश्यते ज्ञायत इत्यर्थः । किं विशिष्टो जन्मसमुद्रः जन्माब्धिः । जन्मफलानां समुद्रस्तं तरितु पोतः प्रवहणवदित्यर्थः । यथा-प्रवहणेन कृत्वा समुद्रः समुत्तीर्यते, तथानेन जन्मसमुद्रण जातबालककर्म कथयितु पारं गम्यते । कियत्संख्योऽयं वेदर्षीन्दुमिति चतुःसप्तत्यधिकशतप्रमाणश्लोक इत्यर्थः । पुनः किंविशिष्टः प्रियः सर्वजातकलवव्यापकत्वात् सर्वहौरिकारणां वल्लभः । तथा च सारं सलक्षणममुष्य गुरूपदेशं, जानाति ताजिकलवानुभवानुवादि । बुद्धिः प्रपञ्चवशतोऽलभतो विचित्रात्. पत्रान्निधानमिव संलभते स लक्ष्मीम् ।। ...... (जन्मप्रकाशकीये) ज्योतिषीयों के लिए यह जन्मसमुद्र नाम का ग्रन्थ जातक के शुभाशुभ कर्म का फल देखने के लिए दीपक समान है। जैसे भयंकर अन्धकार में रहे हुए घटपटादि पदार्थों को हाथ में रहा हुआ दीपक से जाना जाता है, वैसे यह जन्मसमुद्र ग्रन्थ कण्ठस्थ होने से जातक का शुभाशुभ कर्म का फल जाना जाता है। जैसे अगाध समुद्र को पार होने के लिए "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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