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________________ जन्मसमुद्रः अङ्गादिकेन्द्राल्लग्नादिकेन्द्राच्चतुर्थगैश्चतुःस्थानस्थैः कृत्वा यूपेषुशक्तिदण्डनामानो योगा भवन्ति । वाशब्दो विभिन्नयोगवाची। यथा-लग्नधनसहजचतुर्थस्थैः कृत्वा यूपनामा योगः स्यात् । चतुर्थादिसप्तमान्तः सर्वैर्ग्रहैर्यथा स्वैरं इषुर्नाम योगः स्यात् । सप्तमादिदशमान्तगैः शक्तिनामा योगः। दशमादिलग्नान्तस्थैर्दण्डनामा योगः । अथ नौकूटच्छत्रचापाख्या बेडाकूटछत्रधनुर्नामानो योगान् क्रमात् क्रमेण सप्तःगैरिति शब्दाल्लग्नादिकेन्द्रात् प्रत्येकस्थानगतैः सर्वैर्ग्र हैर्भवन्त्येव । तद्यथा-तनुधनसहजसुहृत्सुतरिपुजायास्थितैः प्रत्येकं सप्तभिर्ग्रहैबेंडानामयोगः । चतुर्थादिदशमान्तेः कूटनामा सप्तमादिलग्नान्तश्छत्रनामा योगः। दशमादिचतुर्थान्तस्थैः सर्वैश्चापो धनुरिति नामयोगः ।।६।। चारों केन्द्र स्थान से चार-चार स्थान तक सब ग्रह हों तो यूपादि योग होता है। जैसे-लग्न से चौथे भवन तक सब ग्रह हों तो यूप नाम का योग चौथे भवन से सातवें भवन तक सब ग्रह हों तो इशु नाम का योग, सातवें भवन से दसवें भवन तक सब ग्रह हों तो शक्ति योग और दसवें भवन से लग्न तक सब ग्रह हों तो दण्ड नाम का योग होता है। एवं चारों केन्द्र स्थान से सात-सात स्थान तक सब ग्रह रहे हों तो नौका आदि योग होते हैं। जैसे-लग्न से सात भवन तक सब ग्रह हों तो नौका ( जहाज ) योग, चौथे भवन से दसवां भवन तक सब ग्रह हों तो कूट नाम का योग, सातवे भवन से लग्न तक सब ग्रह रहे हों तो छत्र योग और दसवें भवन से चौथे भवन तक सब ग्रह रहे हों तो धनुष योग होता है ॥६॥ अथ समुद्रचक्रमृगसरभयोगानाह स्वादेकान्तरषड्भस्थै-रब्धिश्चक्रच वाङ्गतः । पापैर्धने शुभैरङ्ग मृगोऽस्ति सरभोऽन्यथा ।।७।। स्वाद् धनाद् एकान्तरषड्भस्थैरेकान्तरितषट्स्थानस्थैः सर्वैरब्धिः समुद्रो नाम योगः । वाथवाङ्गतो लग्नादेकान्तरितषट्स्थानस्थैः सर्वेऽहैश्चक्रं नाम योगः। पापैः सर्वैः पापग्रहैर्धने द्वितीयस्थैः, शुभैः सर्वैः शुभग्रहैरङ्गे लग्नस्थितैमूंगो नाम योगोऽस्ति भवति । अन्यथा सरभयोगः । यथा शुभैर्धनस्थैः, पापैर्लग्नस्थैश्च सरभयोगो भवति ॥७॥ यदि दूसरे, चौथे, छठे, आठवें, दसवें और बारहवें भवन में सब ग्रह हों तो समुद्र नाम का योग होता है। लग्न में तीसरे, पांचवें, सातवें, नवें और ग्यारहवें भवन में सब ग्रह हों तो चक्र नाम का योग होता है । सब पाप ग्रह दूसरे स्थान में और सब शुभ ग्रह लग्न में रहे हों तो मृग नाम का योग होता है। एवं सब शुभ ग्रह धन स्थान में और सब पाप ग्रह लग्न में हो तो सरभ नाम का योग होता है ॥७॥ "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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