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________________ कालिकाचार्यकथा। बाप आपणा घरनइ भाया । राजहंस मानसरोवर भणी चाल्या, लोके वस्तुवाना वखारमइ पाल्या | बगपंगति सोहइ, इंद्रधनुष चित्त मोहइ । आम थयो रातउ, मेह थयो मातउ । मोटी छांट आवइ, लोकानइ मन भावइ । झडी लागी करसणीरी भाग्यदसा जागी । मूसलधारह मेह वरसइ, पृथिवी अर्थपूर्ण करिवानइ तरसइ । वहइ प्रणाल, खलखलइ खाल, चूयह ओरा, भीजइ वस्तुवाना बोरा । टबकइ परसाल, चिंच्यइ बाल । नदी आवी पूर कडणिरा रुख भांजी करइ चकचूर वहह वाहला, लोक थया काहला । जूना ढूंढा पडइ, लोक ऊंचा चडइ । हालीए क्षेत्र खड्या, वाडिसुं सेढा जव्या । मारग भागा, जे जिहां ते तिहां रहिवा लागा । प्रगट्या राता ममोला, धान थया सुंहगा मोला, नीली हरी डहडही, पणा हूया दूधनइ दही । नीपना घणा धान, सांभर्या धर्म नइ ध्यान । गयउ रोर, लोक करइ बकोर, गयउ दुकाल, आयउ दंदू सुकाल" ॥ ईदृशे वर्षाकाले न कोऽपि गन्तुं शक्नोति । ततः श्रीकालिकाचार्यवचसा सर्वेऽपि साखीराजानः ९६ निजनिजपटकुली विस्तार्य स्थित्वा(ताः)। एवं मासचतुष्टयस्थित्या वर्षाकाले श्रीकालिकाचार्यैः प्रोक्तम्-भो राजानः ! मार्गाः समीचीना जाताः, अथाने चलन्तु यथा भवतां स्वेप्सितं सिद्धयति । तदा ते प्रोचुः-हे श्रीगुरो ! कथं प्रस्थितिः भवति ! बहुकालविलम्बनेनास्माकं द्रव्यं सर्वं निष्टितम् ; शम्बलं च क्षीणम् , क्षुधातुराणामस्माकं सर्वं विस्मृतम् । " तो बोजा नइ खाण, जां जिमइ जासक पान, तां भट्टारक भगवान, जां जीमइ जासक धान, तां गीत मइ गान, जां जीमइ जासक धान, तां तान नइ मान, जां जीमइ जासक धान, तां चीवाह नइ जान. जां जीमह जासक धान, तां फोफल नइ पान, जां जीमइ जासक धान. तां धर्भ नइ ध्यान, जां जीमइ जासक धान, तां तप नइ उपधान, जां जीमइ जासक धान, तां आदर नइ मान, जां जीमइ जासक धान, तां लग सखा कान, जां जीमइ जासक धान, तां लग मुहडइ वान, जां जीमइ जासक धान, जां पेट न पडइ रोटीयां, तां सब्वेहि गल्ला खोटीयां " ॥२६॥ ततः श्रीआचार्यैः विचारितम्-सत्यमेते वदन्ति । कोऽपि द्रव्योपायः कार्यः यथा संबलं भवति । सैन्यं चलति, कार्यसिद्धिर्भवति, परं किं कर्त्तव्यमिति चिन्तया निशि निद्रा न (ना)याति । तावत् शासनदेवता प्रगटीभूय प्रोवाच हे 'भगवन् ! चिन्ता मा क्रियताम् , एषा चूर्णकुम्पिका गृह्यतां यदुपरि वासः करिष्यते तत् सर्वं स्वर्ण भावि, इत्युक्त्वा गता। प्रभाते जाते श्रीसूरिभिः सर्वेऽपि राजान माहूताः, प्रोक्तं च-भो ! कुत्रापि एक इष्टवाहको विलोक्यताम् । तैरासन्नस्थाने विलोकयद्भिः दृष्टः, गुरूणां दर्शितश्च । गुरुभिः विद्याबलेन देवेनादत्तचूर्णवासक्षेपप्रक्षेपणेन च सर्वोऽयीष्टवाहः स्वर्गीकृतः, पश्चाद विभज्य सर्वेषां साखीराज्ञां प्रत्येकं स्वर्णेष्टिका दत्ता । ततो हर्षिताः संजातसंबलबलाः ते प्रयाणढकां दत्वा मालवकदेशं प्रति प्रचेलुः । अग्रे गच्छद्धिः लाटदेशस्वामिनो श्रीआचार्यभागिनेयो बलमित्र-भानुराजौ अपि साथै गृहीतौ । सतो यावता श्रीकालिकाचार्यसैन्यं मालक्कसोम्नि आगतं तावता गर्दभिल्लोऽपि राजा स्वसैन्यं मेलयित्वा प्रयाणढक्का दापयित्वा सम्मुखमागत्य पतितः । अथ आदित्यवारे द्वयोरपि सैन्य प्रयाणढकावादनपूर्व च सम्मुखं चलितम् । तत्र केन प्रकारेण युद्ध जातं तत् श्रयताम् ---- " आम्हा साम्हा कटक आव्या चडी, फोजइ फोज अडी । बगतर नइ जीन साल, सुभटे पहिर्या तत्काल । माथा घर्या टोप, सुभट चड्या सबल कोप, पांचे हथियार बांध्या, तीरे तीर सांध्या, अमल पाणि कीधा, भ घोडे घाली पास्वर, जाणे माडा श्राया भाखर, आगइ कीया गज उपरि फरहरइ धज, हमामे दीधी घाई, सूरवीर आया धाई, रणतूर वागइ, ते पिणि सिंधू [भइ] डारा गइ । ठाकुर वपु कारइ, वडवडा बापारा बिरुद संभारइ । छुटइ नालि निपट गगरीज रासस लाथा। "Aho Shrutgyanam"
SR No.009529
Book TitleKalikacharya Kathasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherKunvarji Hirji Naliya
Publication Year1949
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size11 MB
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