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________________ प्रास्ताविक निवेदन। होता है। प्रति है तो पुरातन; लेकिन अन्तमें समय इत्यादिका सूचक कोई उल्लेख न होनेसे निश्चयात्मक कुछ नहीं कहा जा सकता । यह प्रति बिल्कुल बेपर्वाईसे लिखी गई प्रतीत होती है । लिपिकार कोई नया सिखाऊ और अपठित मालूम देता है । उसको पुरानी लिपिका बहुत कम परिचय है। संस्कृत-प्राकृत भाषाका उसको किश्चित् भी ज्ञान नहीं है । भाषानभिज्ञताके कारण आकृतिसाम्यवाले अक्षरोंकी नकल करने में वह वारंवार गलती करता है और एक अक्षरकी जगह दूसरा अक्षर लिख डालता है । कहीं तीर्थराज के स्थान पर नीर्घराज लिख देता है तो कहीं तत्र की जगह तव या नव वना देता है । ५ वें प्रकरणका पहला पद पच्छिमदिसाए है जिसको उसने एत्थिमहिसाण लिखा है-प का ए, च्छि का त्थि, दि का हि और ए का ण में परिवर्तन कर ६ अक्षर वाले एक ही पदमें ४ अक्षर उसने बदल दिये हैं। कहीं द्रष्टव्यं की जगह द्रव्यं और गंतव्यं की जगह गव्यं लिख कर शब्दके बीचके अक्षर ही उड़ा देता है, तो कहीं अनुस्वारको आगे पीछे लिख कर एतं रचयां का एतरंचयां वना डालता है । किस अक्षरका कौन काना है और कौन मात्रा है इसका भी उसको ठीक ठीक खयाल नहीं रहता; इस लिये अचरजेकी जगह अवराज कर देता है और पात्रके बदले पत्रे लिख लेता है । इस तरह लिपिकर्ताके अज्ञानके कारण इस प्रतिका पाठ बहुत जगह भ्रष्ट हो गया है । हमने इसका उपयोग प्रायः वहीं किया है जहां और और प्रतियोंमें खास सन्देह उत्पन्न हुआ है। पंचकल्याणक स्तवन, जो सोमसूरिकी कृति है, A प्रतिके सिवा इसी प्रतिमें उपलब्ध है । उसका पाठ निश्चित करने में इसीका सहारा मिला। P प्रति-पूनावाले उसी संग्रहमेंकी एक तीसरी प्रति जिसकी पत्रसंख्या ३२ है । इस प्रतिमें कुल ४८ कल्प लिखे हुए हैं। इसमें पंचपरमेष्ठिनमस्कार नामका जो कल्प है वह ऊपरवाली और और प्रतियों में नहीं मिलता। यह कल्प इसमें चतुरशीति तीर्थनामसंग्रहकल्पके अन्तमें-पत्र २६ की पहली पूंठी पर लिखा हुआ है। हमने इसको परिशिष्टके रूपमें सबके अन्तमें रखा है । इसके सिवा इस संग्रहका जो क्रम है वह सब प्रतियोंसे भिन्न है । कई कल्प, अन्यान्य प्रतियों के हिसावसे, आगे-पीछे लिखे हुए हैं। उदाहरणके लिये, अन्य सब प्रतियोंमें उज्जयन्तस्तवका क्रमांक ३ रा है, इसमें उसका ५ वां है । इसके बाद ही अंबिकाकल्प लिखा हुआ है जो A B और Pa प्रतिमें सबके अन्तमें दिया हुआ है। अंबिकाकल्पके बाद कपर्दियक्षकल्प लिखा गया है जिसका क्रमांक अन्यान्य प्रतियोंके मुताबिक ३० वा है । अर्बुदकल्प जिसका क्रमांक अन्य संग्रहानुसार ८ वां है उसका इसमें ३८ वां है । इस प्रकार प्रायः बहुतसे कल्प इसमें आगे-पीछे लिखे हुए हैं। संपूर्ण तालिका कोष्टकमें दी गई है जिससे जिज्ञासु पाठक मिलान कर सकते हैं । वस्तुपाल-तेजःपालमन्त्रिकल्प (क्रमांक ४२) इसमें लिखा हुआ नहीं है लेकिन उसके स्थानपर, उस कल्पमें जो अन्तमें ३ श्लोक लिखे हुए हैं [ देखो पृष्ठ० ८०, पंक्ति १८-२०] वे इसमें दिये हुए हैं । अन्तरिक्षपार्श्वनाथकल्प अन्यान्य संग्रहों में प्राकृत भाषामें लिखा हुआ है, इसमें उसका संस्कृत रूपान्तर है। इसी तरह हरीकखीनगरस्थितपार्श्वनाथकल्प (क्रमांक २९) का भी इसमें संस्कृत भाषान्तर दिया हुआ है । इस कल्पके अन्तमें लिखा है कि इति श्री [हरि] कंखीनगरमंडनश्रीपार्श्वनाथकल्पा प्रभुश्रीजिनप्रभसूरिभिः कृतयो (?) प्राकृते । न वा. गुणक [ल? ] श श्रीराजगच्छीय संस्कृते मज्झधत्त (?) ! (पत्र १३, पूंठी २, पंक्ति १९–२०) इस अशुद्धिबहुल पंक्तिका तात्पर्यार्थ यह मालूम देता है, कि राजगच्छीय वा० (वाचक) गुणक [ल ] श नामके किसी पंडितने, जिनप्रभसूरिकृत प्राकृत कल्पको संकृतमें बनाया। इससे प्रतीत होता है कि उक्त अन्तरिक्षपार्श्वनाथकल्पको भी उसीने संस्कृतमें रूपान्तरित किया होगा। क्यों कि ये दोनों कल्प इस प्रतिमें एक
SR No.009519
Book TitleVividh Tirth Kalpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Gyanpith
Publication Year1934
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tirth
File Size5 MB
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