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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सिद्ध द्वारा जो गृहस्थ अवस्था का त्यागकर, मुनिधर्म साधन चार घाति कर्मों का नाश होने पर अनंत चतुष्टय प्रकट करके कुछ समय बाद अघाति कर्मों के नाश होने पर समस्त अन्य द्रव्यों का संबंध छूट जाने पर पूर्ण मुक्त हो गये हैं; लोक के अग्र भाग में किंचित् न्यून पुरुषाकार बिराजमान हो गये हैं; सिद्ध परमेष्ठी जिनके द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म का प्रभाव होने से समस्त प्रात्मिक गुण प्रकट हो गये है; वे सिद्ध हैं। उनके आठ गुण कहे गये हैं समकित दर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहना । सूक्ष्म वीरजवान, निराबाध गुण सिद्ध के ।। १. क्षायिक सम्यक्त्व ३. अनंत ज्ञान ५. अवगाहनत्व ७. अनंतवीर्य २. अनंत दर्शन ४. अगुरुलघुत्व ६. सूक्ष्मत्व ८. अव्याबाध आचार्य, उपाध्याय और साधुओं का सामान्य स्वरूप आचार्य, उपाध्याय और साधु सामान्य से साधुओं में ही आ जाते हैं। जो विरागी होकर, समस्त परिग्रह का त्याग करके, शुद्धोपयोग रूप मुनिधर्म अंगीकार करके अंतरंग में शुद्धोपयोग द्वारा अपने को प्राप रूप अनुभव करते हैं; अपने उपयोग को बहुत नहीं भ्रमाते हैं, जिनके कदाचित् मंदराग के उदय में शुभोपयोग भी होता है परन्तु उसे भी हेय मानते हैं, तीव्र कषाय का प्रभाव होने से अशुभोपयोग का तो अस्तित्व ही नहीं रहता है - ऐसे मुनिराज ही सच्चे साधु हैं। १० Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.009515
Book TitleBalbodh Pathmala 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherMaganmal Saubhagmal Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year1995
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size572 KB
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