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________________ १४ प्रकाशित करवाई है। अनेक ज्ञानभण्डारों में यह विजयसिंहसूरि की कृति के नाम से भी उपलब्ध है, परन्तु वस्तुतः श्रीजयसिंहसरि ही इस कृति के कर्ता का सच्चा नाम है । न्यायसार की अनेक टीकाओं में से यह एक उत्तम कोटिकी टीका है। (५) तर्कभाषा-वार्तिक श्रीशुभविजयगणि का यह वार्तिक पं. श्री केशवमिश्र की 'तर्कभाषा' के ऊपर है । वार्तिक यद्यपि विस्तार में बड़ा नहीं है फिर भी 'तर्कभाषा' के उपर प्रमाणिक टीका के रूप में है। (६) तर्कतरङ्गिणी श्रीगुणरत्नसूरि की यह 'तर्कतरङ्गिणी' पं. श्रीकेशवमिश्र की 'तर्कभाषा' के ऊपर रची गई पं. श्री गोवर्धनमिश्र की तर्कभाषा प्रकाशिका नाम की टीका के ऊपर एक विस्तृत व्याख्या है। नव्य न्याय से परिपुष्ट यह टीका करीब ७००० श्लोक प्रमाण की है। (७) जिनवर्धनी श्रीजिनवर्धनाचार्य की यह टीका पं. श्री शिवादित्य की सप्तपदार्थी पर है। सप्तपदार्थी की अनेक टीकाओं में जिनवर्धनी प्राचीनतम है और अपना महत्त्व का स्थान रखती है । यह टीका अनेक जैन ज्ञानभण्डारो में उपलब्ध होती है जिससे प्रतीत होता है कि अभ्यासियों में इसका काफी प्रचार था । यद्यपि यह सम्पूर्ण रूप से अभीतक प्रकाशित नहीं है फिर भी इसके कुछ अंश अवतरणरूप में कलकत्ता संस्कृत सिरीज-कलकत्ता से प्रकाशित मितभाषिणी पदार्थचन्द्रिका और सन्दर्भ ये तीन टीकाओं के साथ लिये गये हैं । टीका विशद होने पर भी विस्तृत नहीं है। इसमें सातों पदार्थों का वैशेषिक सिद्धान्तानुसार प्रामाणिक निरूपण किया गया है । (८) सप्तपदार्थी टीका, (९) न्यायसिद्धान्तमञ्जरी टीका, (१०) मङ्गलवाद ये तीनो ग्रन्थ श्रीसिद्धिचन्द्रगणिके हैं। इन ग्रन्थो में मङ्गलवाद ४ पत्र का एक छोटा सा ग्रन्थ है। अवशिष्ट दो टीकायें बडी हैं । मङ्गलवाद को पढ़ने से प्रतीत होता है कि सिद्धिचन्द्र की भाषा में पाण्डित्य की झलक न होते हुवे भी सरलता काफी है। न्यायसिद्धान्तमञ्जरी श्रीचूडामणि भट्टाचार्य का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। (११) तर्कसंग्रह-फक्किका श्रीक्षमाकल्याण की इस कृतिका विस्तार से परिचय पाने के पूर्व श्रीकर्मचन्द्रयति की टीका का थोड़ा सा परिचय किया जाय । (१२) तर्कसङ्ग्रह-टीका श्रीकर्मचन्द्रयति की यह टीका तर्कसंग्रह के ऊपर एक स्वतन्त्र टीका है। जिनरत्नकोष जैसे हस्तलिखित ग्रन्थों के सूचीपत्र में इसका उल्लेख नहीं है क्योंकि यह जोधपुर राज्य के महाराजा के निजी पुस्तकभण्डार में है। इस टीका की दूसरी प्रति आग्रा के जैन भण्डार में है । जोधपुर की प्रतिका प्रथम पत्र गायब है, किन्तु आग्रा में वह पूर्ण रूप से है वैसा श्री अगरचन्दजी नाहटा से सुना गया है। (१३) तर्कसंग्रह की इस टीका के अलावा लींबडी के स्थानकवासियों के भण्डार में तर्कसंग्रह की और भी एक टीका है। टीका अपूर्ण है और लेखक का नाम नहीं है, परन्तु मङ्गलश्लोक का आरम्भ 'प्रणिपत्य जिनं पार्श्वम्' पद से होता है इस लिये टीकाकार जैन है इसमें सन्देह नहीं । टीका, कर्ता ने नहीं परन्तु लेखक ने अपूर्ण रक्खी है। इतने संक्षिप्त विवरण के पश्चात् अब श्रीक्षमाकल्याण की फक्किका का विस्तृत परिचय करें । टीका के परिचय के पूर्व यह उचित है कि श्रीक्षमाकल्याण के जीवनचरित्र का भी संक्षेप में परिचय करें ।
SR No.009511
Book TitleTarkasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2004
Total Pages55
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size1 MB
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