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________________ गुरुजणपूआ मेरे गुरुजनों का आदर करु! वो है मन को सदाचार का कवच पहनाने का । मेरी आँखो को आपकी प्रतिमा के साथ जोड + । मेरी जिह्वा को आपकी स्तुति के साथ बाँध हूँ। मेरे पैरों को आपकी यात्रा के साथ संकलित करूँ। मेरे हाथ को आपकी पूजा के साथ सम्बन्धित करूं । मेरे मन को आप के गुणों में पिरो हूँ। मुझे मिलने वाले हर एक को मैं अपना मित्र मानूँ । दूसरों के सद्गुण देखने का प्रयत्न करूँ और गुण-प्रशंसा करने की आदत डालूँ । दूसरों के दुर्गुणों के प्रति मैं ध्यान न हूँ। दुःख में सहानुभूति रखू और मन को शांत, सरल, समर्पित और सन्तोषी बना हूँ । प्रभु ! इतने सरल नियम भी अपनाने में मुझे बहुत कठिन लगते हैं। फिर भी में नचिंत हूँ। क्योंकि आप मेरे सारथी हो। मैंने अब मेरी चिन्ता आपको सौंप दी है। गाडी के साथ जुड़े हुए बैल को या रथ के साथ जुड़े हुए घोडे को रास्ता भूलने का डर कभी नहीं लगता, क्योंकि उसने अपनी लगाम सारथि के हाथ में सौंप दी होती है। हे प्रभु ! मेरी भी लगाम मैंने तेरे हाथ में रख दी है। अब सौंप दीया इस जीवन को भगवान तुम्हारे चरणो में मुझे सम्हालोगे ना? पिता के वचन को निभाने के लिए रामचन्द्रजी ने वनवास का स्वीकार किया। अन्ध मातापिता को कावड में बिठाकर श्रवणकुमार ने तीर्थयात्रा करवाई। पिताश्री का पत्र पढ़कर कुणालकुमार अन्धा बन गया। रामचन्द्रजी, श्रवण और कुणाल तीनों ही महान व्यक्तिओं ने मातापिता का प्रेम जीतने के लिए भव्य बलिदान दिया। रामचन्द्रजी ने राजगद्दी के बदले वनवास को प्रिय किया । श्रवण ने कारकिर्दी से भक्ति को महत्व दिया । कुणाल ने भविष्य के बजाय विनय को पसन्द किया। क्योंकि मातापिता का प्रेम जीतने की उनकी भावना उच्च और तीव्र थी। जिस तरह आँखे खुली रखकर सोना असम्भवित है, तपती धूप में शीतलता की आशा रखना व्यर्थ है, उसी तरह मन में अभिमान रखकर प्रेम देना या प्रेम जीतना असम्भव है। हे प्रभु ! आप, गुरुभगवन्त और मातापिता आदि गुरुजन इन तीनों के प्रति समर्पण भाव रखने से ही मेरा जीवन सार्थक बन सकता है। लेकिन मैं इन तीन तत्त्वों में से प्रत्यक्ष जीवन में मेरे सबसे करीब रहनेवाले मेरे मातापितादिगुरुजन का प्रेम ही नहीं जीत सका हूँ और उनको मैं प्रेम दे भी नहीं सका हूँ। तो गुरुभगवन्त के प्रति या आप के प्रति मैंने समर्पण भाव पैदा किया है, ऐसा कैसे कह सकता हूँ? हे प्रभु ! मेरे इस तुच्छ अभिमान को दूर करना । रामचन्द्र, श्रवण और कुणाल जैसे उत्कृष्ट विनय-आदर और समर्पण के फूल मेरे जीवन में जब तक नहीं खिलते तब तक बस एक ही प्रार्थना करता हूँ कि राम की तरह पिता के वचन के खातिर मैं गृहत्याग भले ही न कर सकूँ, लेकिन मेरे खातिर माँ-बाप को गृहत्याग करना पडे इतना स्वच्छंदी और स्वार्थी मैं कभी ना बनूं। श्रवण की तरह मातापिता को कंधे पर बिठाकर तीर्थयात्रा भले ही न करवाऊँ, लेकिन बुढ़ापे में उनका विश्वास तोडकर उनको न ठुकराऊँ। कुणाल की तरह पिता के वचन को निभाने के लिए मैं भले ही अपनी आँखे निकालकर न दूं, परन्तु मेरे मातापिता की आँखों में से अश्रुवहन होने में निमित्त ना ही बनूँ । पह,
SR No.009506
Book TitleChahe to Par Karo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2005
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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