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________________ मग्गाणुसारिआ आपके मार्ग पर चलने की शक्ति मीले। इट्ठफलसिद्धि प्रभु ! मुझे इष्ट फल की सिद्धि प्राप्त हो । मेरी हरेक चीज की मुझे चिन्ता रहती है। अन्य दूसरों की ओर से मुझे भय लगा रहता है। अविश्वास, सन्देह, चिन्ता और भय इस चार महारिपु में फंसा देने का काम मेरी ये नादान बुद्धि ने ही किया है। हे प्रभु! मंजिल दूर हो और रास्ता कठिन । कदम-कदम पर आपत्ति खड़ी हो और वातावरण प्रतिकूल हो। पैर थक गए हो और सामने विशाल पन्थ हो फिर भी पथिक स्थल प्रति की श्रद्धा और विश्वास के बल पर चल सकता है। उसी तरह आपके प्रति श्रद्धा से पैदा हुआ विश्वास, अगर दिल में स्थिर हो जाये तो आपके दिखाये हुए राह पर चलने में बिलकुल कठिनाई नहीं होगी। लेकिन मुसीबत यहाँ हैं किमैंने हमेशा बुद्धि पर ही प्राधान्य रखा है। बुद्धि के सहारे जीता-जागता रहा हूँ मैं, मुझे न आपकी श्रद्धा का अनुभव है और न तो आपके प्रति विश्वास का अहेसास । इसलिए ही मेरे जीवन में न तो प्रेम है कि न तो माँ की गोद में सोते हुए बच्चे जैसी निश्चितता और निर्भयता । मेरा मन अनेक शंका-कुशंका से भरा हुआ है। और अविश्वास से छलक रहा है। मेरी बुद्धि के सिवा मुझे हर चीज पर शक होता है। मुझे अपने आपके सिवा किसी पर भी विश्वास नहीं है। मुझे इससे बाहर निकालो। मुझे प्रेम करना सीखा दो। मुझे विश्वास रखना सीखा दो। दिमाग के बदले मैं दिल का उपयोग करूँ ऐसी कला सीखा दो। तब ही मैं आपके बताये हुए मार्ग पर अच्छी तरह से चल सकूँगा। आपके द्वारा निर्देशित किया हुआ मार्ग मुझे मेरे घर की ओर ले जाएगा, ऐसा विश्वास मुझ में जगा दो। आपको ही ये विश्वास मुझ में जगाना होगा क्योंकि आपही मेरी प्यारी-प्यारी माँ हो । माँ ही नहीं बल्कि माँ से भी कुछ विशेष हो । मेरी ऊँगली पकड़कर आपको ही मुझे चलना सीखाना है। मुक्ति की मंजिल तक की सफर सरल बनाने की जिम्मेदारी सिर्फ आपकी ही है। हे प्रभु! मेरी एक मात्र इच्छ परमात्मा बनने की है। मेरी यह इच्छा सफल बनाने के लिए मैं आपको मेरे हृदयमन्दिर में विराजित करना चाहता हूँ। मुझे पता है, जहाँ आसक्ति है, आप वहाँ नहीं रहते। इसलिए मुझे मेरे दिल की आसक्ति दूर करनी है। येनकेन प्रकारेण संसार मेरे दिल को हड़प करना चाहता है। कभी सम्पत्ति की लालच देकर, कभी सम्पत्ति का अभिमान पैदा करके, कभी सुखों में हँसाकर, कभी तुच्छ दुःखों में रूलाकर, कभी विषयों के आवेग में डूबाकर, कभी कषायों के आवेश में भान भूलाकर, कभी सुन्दर रुप में मोहित कर, कभी रस में मस्त बनाकर, कभी स्पर्श में, कभी शब्द में, कभी गन्ध में आसक्त बनाकर, कभी स्वार्थ पैदा कर, कभी ईष्यां में जलाकर, कभी हर्ष पैदा कर, कभी गमगीन बनाकर। किसी भी तरीके से ये संसार आपकी पवित्र मूर्ति को मेरे -१०
SR No.009506
Book TitleChahe to Par Karo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2005
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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