SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बन्धशतक गा.-१०७ प्रकरणम् | विपाटितातिनिबिडरागद्वेषकपाटसम्पुटो विनिर्दलितातिदुष्टसन्निहितकषायसुभटाभिमानो विनिर्गत्य चिरकृतावस्थितिसंसारचारकगृहान्मुक्तजन्तुनिवासयोग्यं नि:शेषभयविप्रमुक्तं निःसीमसुखसन्दोहास्पदं यावदिप्सितं सुविशुद्धं सिद्धिसौधमध्यास्त इति गाथार्थः ॥१०७॥ ॥ इति विनेयहिता नाम शतकवृत्तिः समाप्ताः ॥ भा० इय गाहाए एवं भावत्थं परिकहति सुत्तधरा । जह दिट्ठिवायअंगे अग्गेणीए दुइयपुव्वे ॥१११०॥ पणिधिकप्पाभिहम्मि पंचमवत्थुम्मि कम्मपयडि त्ति । इय नामेण पसिद्धति पाहुडं सुयविसेसो त्ति ॥११११॥ आसि तओ ठाणाओ उद्धरिओ एस सयगगंथो त्ति । सिवसम्मसूरिणाणेगवायजयलद्धसद्देण ॥१११२॥ इय कम्मपयडिपगयंति कम्मपयडीउ सुयविसेसाओ । अंतरगयंति समयं गंथं इइ वक्कसेसो त्ति ॥१११३॥ संखेवेणुट्ठि कहियं तह निच्छियं अवभिचारि । पहुयत्थं ति महत्थं जो उवजुज्जेइ बहुसो त्ति ॥१११४॥ जो उवओगं पुण पुण नेइस्सइ चिंतणाइदारेणं । सो नाही जाणिस्सइ अत्थं बंधस्स मोक्खस्स ॥१११५॥ अत्थं परमत्थं पुण बंधो कम्माण दुक्खहेउ त्ति । जीवाणं मोक्को पुण सासयसिवमोक्खसंजणगो ॥१११६॥ ३३६
SR No.009504
Book TitleBandhashataka Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Prashamrativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy