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गा.-९४
बन्धशतकप्रकरणम्
तेय पुणो मिच्छअविरयदेसविरयाइतिन्निई पंच । पज्जत्ता सत्तुक्कडजोगे बंधंति उक्कोसं ॥८७४॥ जीवा पएसबंधं मिस्सो तह पुव्वकरणमाईया । नो बंधंती आउ कइयावि हु तेण नो भणिया ॥८७५॥ सासाणो पुण एवं बंधइ नवरं तु अप्पकालत्ता । जत्ताभावाउ तहाविहा उ अन्ना वि कुओ वा ॥८७६॥ हेऊओ सासायणगुणस्स उक्कस्स जोगसंबंधो । न हवइ तत्तो उक्सपएसबंधस्स उ अभावा ॥८७७॥ सासायणो न होई सत्त उ ट्ठाणाणिमाणि मोहस्स । मिच्छप्पभिई अनियट्टिबायरता उ नवट्ठाणा ॥८७८॥ तं मज्झा दुइयतइयगुणठाणा मोत्तु सेसगा जे उ । सत्तट्टाणा तत्थ ठियाओ सत्तवि जणा बंधं ॥८७९॥ उक्कोसं पविहंती चउत्थकम्मस्स तह य सेसाणं । आइमदुतइयछसत्तअट्ठमाणं तु कम्माणं ॥८८०॥ पयणुकसाओ सुहुमो उक्कसजोगम्मि वट्टमाणो उ । उक्कोसगबंधं संविहेइ सुहुमो हि मोहाउं ॥८८१॥ नो बंधइ तो तेसिं भागो अहिगोत्थ लब्भई ईई । सुहुमस्स कयं गहणं उक्कोसबंधसामित्तं ॥८८२॥
मूलपयडीण एयं वुत्तं अह तेसिमेव पभणेइ । जहन्नपएसबंधाण सामियत्तं समासेणं ॥४८३॥ तदेवमुक्तं मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धस्वामित्वम्, इदानीं तासामेव जघन्यप्रदेशबन्धस्वामित्वमाह
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