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________________ (३) शीत वेदना भी इतनी ज्यादा भुगतनी पडती है कि यहाँ के मानव भवमें सर्दीकी प्रकृतिवालाहो अस्थमा, खांसी आदि की पीड़ा हंमेशा के लिए हो, जरासी भी ठंडी हवा सहन कर न सकते हो ऐसे मानव को पोष या महामास की अतिशय ठंडी हवा की लहरे आती हो बर्फ गिर रही हो, और उँचे से उँचे पर्वत की टोच के उपर नग्न अवस्थामें सुला दिया जाए, और उसे जो ठंडी की पीडा होती है। उससे अनंतगुणी शीत वेदना उष्णयोनिमें उत्पन्न हुए नारकीय जीवोको हमेशा भुगतनी पड़ती है। (४) उष्ण वेदना मतलब गर्मी की पीड़ा वह भी नारकीको बहुतही सहनी पड़ती है। ठंडे प्रदेशमें, जन्म हुआ हो ऐसा मानव हो, गर्मी बिलकुल ही सहन न कर सकता हो, उसे गरममें गरम हवावाले प्रदेशमें, भरपूर गर्मी में, वैशाख, और ज्येष्ट के कडक तापके बीचमें, खेरके लकडे के गरमगरम कसे पर सुलाने पर जो वेदना होती है, उससे भी अनंतगुणी गर्मी की वेदना, नरकमें रहनेवाले शीत योनि उत्पन्न होनेवाले नरक जीवोको होती है। गर्मी की वेदना से भी ठंडी की वेदना और ज्यादा कठिन लगती है। (५) ज्वर - वेदना मतलब बुखारकी पीड़ा, वह सब नारकी जीवोकी हमेशा रहती है। जितना नीचा स्थान नारकी जीवो का होता है उतने ज्यादा रोगसे दुःखी बनते है । (६) दाह मतलब जलन नरक में रहनेवाले जीवोको शरीरमें अंदरसे और बाहार से हंमेशा ज्यादा जलन रहा करती है, और वहाँ जहाँ भी जाते है । वहाँ जलन बढ़ानेवाले साधन ही मिलते है, उसे शांत करनेके लिए कोई भी जगह या साधन मिलते नहीं है । (७) कंडु मतलब खुजली । वह जीवो को हंमेशा इतनी खुजली होती है कि वह कितना भी खुजाएँ, लेकिन वह पीड़ा कम नहीं होती । चक्छु, छुरी, तलवार या एकदम धारदार हथियारोसे, शरीर को चमडीको उखाड देने जैसे करे फिर भी उसकी खुजली की पीड़ा टलती नहीं और जलन की कोई सीमा नहीं रहती । (८) परतंत्रता भी इतनी ही होती है। कोई भी अवस्थामें उसे स्वतंत्रता जैसी चीजका अनुभव नही होता हमेशा पराधीनता की दशामें ही पूरा जीवन व्यतित करना पड़ता है। (९) डर ज्यादा रहा करता है, उधर से कष्ट आएंगे कि इधर से कष्ट आएंगे कि इधर से कष्ट जाएंगे ऐसी चिंता दिनरात रहा करती है । सदा त्रास, निरबलता, घबराहट, हद बाहरकी संकोच में रहते है। कोई भी वातकी शारीरिक, मानसिक शांति का जरा भी अनुभव नहीं होता । विभगंज्ञान से आगे आनेवाले दुःख को जानकर सतत भयके वातावरण रहेते है । (१०) शोक की पीडा भी हद के बहारकी, जोर से चिल्लाना, करुण रुदन करना, अतिशय गमगीन रहना आदि दुःखद स्थितिओं में ही पूरा जीवन व्यतित होता है । परमधामी कृत वेदना : नरकमें दुःख देनेवाले १५ प्रकारके परमाधामी देव होते है। नारकी के जीवो को अलग अलग प्रकार से अति भयानक विविध दुःख देते है । यह परमाधामी तीन नरक तक होते है। परमधामी वह जीवो उनके पाप याद कराके कठिन से कठिन शिक्षा लेकर रिबाते है । नारकीजीव उत्पन्न होते है वैसे तुरंत ही वह गर्जना करते करते चारो दिशाओंसे दौड़ के आते है और बोलते है । यह पापी को जल्दी मारो, चीर दो, फाड़ दो। वह लोग भालातलवार तीर आदि से उनके टुकडे-टुकडे करके कुंभी में से बहार खींचकर निकालते है ।
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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