SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिध्ध करता है। दुसरा वाक्य नरक को सिध्ध करता है। ये दोनों परस्पर विरुध्ध अर्थवाले वाक्योंसे तुम द्विधा में थे। हे अकंपित नरकगति व नारकी जीवों नहीं है। अगर नारकी हो तो दिखने में क्यों नहि आते ? अब तक मुझे वे दिखे क्यों नहि ? तेरी सोच और मान्यता सही नहीं है। वेद वाक्यो से तुझे शंका इसलिये है कि तुमने उसका पूर्व बताये हुए सबंध के साथ अर्थघटन नहीं किया । पृथ्वी पर मेरु पर्वत आदि शाश्वत है, नित्य है। वैसे नरक में नारकी गण शाश्वता नहीं है। हर हमेशरहनेवाले नहीं है। जो जीव उत्कष्ट पाप करता है वह मरकर अगले जन्म में नारकी बनता है। नारकी मर कर वापस नारकी नहीं बनते - नरक में जन्म नहीं लेते ऐसा उसका अर्थ है। इस तरह से वेद का अर्थ है कि जीव को पाप नहीं करना चाहिये जिससे अगले भव में नारकी बनना पडे। ४६) नारक सिध्धि मैने देखा है जाना है, वैसा ही वर्णन तेरे आगे कर रहा हँ उसमें शंका मत रखो। हे कृपाल परमात्मा! नारकी जीव है तो फिर यहाँ क्यों नहीं आते । प्रश्न २ - राजा प्रदेशी ने केशी गणधर को प्रश्न पूछा था कि मेरे दादा महा नास्तिक थे अति पाप करते थे, अगर आपके कथन अनुसार ज्यादा पाप करनेवाले नरक में आते है, मैंने दादाजी से कहा था अगर आप नरकमें जाओ तो हमें यहाँ कहने आना कि वहाँ कैसा दुख है ? पाप की कैसी सजा भुगतनी पडती है ? मेरे दादा को गुजर गये बरसों हो गये फिर भी अभी तक वे आये नहीं। नरक जैसी कोई गति होती तो मेरे दादा अवश्य । हमे बताने को आते-वे आये नहीं इसलिये मै नरक नहीं है ऐसा मानता हूँ। केशी गणधर कहते है कि है प्रदेशी, मानलो के व्यक्ति घर से कह के निकला है कि मैं वापस थोड़ी देर में आता हूँ और उसके जाने के पश्चात तम्हारी अत्यंत मानीती रानी किसी कार्य वश बाहर निकली हो ऐसा एकांत निर्जन स्थान देखकर वह कामवश होकर तेरी रानी पर बलत्कार करता है, उसका शील लुटता है तथा रानी की चित्कार सुननेवाला कोई भी नहीं हो तथा रानी मारने के लिये उसके शरीर पर हमला करता हो तभी अचानक सैनिक आ जाते है व उस दुष्ट व्यक्ति को पकड़ कर तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत करते है यह सब देख कर तुम लाल पिले हो जाते हो तथा उस दुष्ट अपराधी को फांसी की सजा सुनाते ही तथा वह दुष्ट तड़फता हो या त्रासदी अनुभव करता हो उस वक्त क्या वह घर जा सकेगा ? उसके मन मे बहुत इच्छा होती है कि घर जाकर अपने पत्नी व संतानो को मिलने की ऐसी बहुत इच्छाएं होती है तथा वह तुम्हारे सामने गिड़गीड़ाये भी सही कि मुझे छोड़ दो मै कल वापस आ जाऊंगा। तो है राजन क्या तुम उसे छोड़ दोगे ? (हरगीस) ही नहीं। तो नरक में ऐसाही है वह पृथ्वी के निचे अधोलोक मे ही है। वहाँ जो जीव तीव्र पाप के कारण नरक में गये हैं वे महाभयंकर दुःख झेल रहे होते है। परमाधमी को दुःख देने में आनंद आता है, वे क्यों किसी को छोड़ देंगे। असह्य वेदना सहन करते हुए वे परमाधमी के आधीन होते है। तो फिर हे प्रदेशी, तुम्हारे दादा खुद यहाँ कैसे कुछ कहने को आ सकते भला ? इस तरह तर्क और युक्ति पूर्ण उत्तर से वह सच्चाई समझने में कामयाब हुआ। नारकी जीव यहाँ नहीं आ सकते ? जीव यहाँ पाप की प्रवृत्ति निरंतर करता है। कहीं तो उसे पापकी सजा मिलेगी। जैसे कि एक मनुष्य सो बार चोरी करता है। मुश्किल से वह एक-दो बार पकडाता है। दो-चार साल जेल में सजा काटकर आता है। पर जो ९८-९९ बार की चोरी में न पकडाया वह पाप से छूट नहीं सकता | पोलिस के सिकंजे से तो वह छूट सकता है, पर पाप करने के बाद परमाधमी से बचना अति मुश्किल है, कोई चांस नहीं। आदमी मृत्यु के समय खानापीना भूल सकता है पर किये हुए पाप कभी नहीं भूल सकता । बाकी - है अकंपित पाप दो प्रकार के होते है कुछ सामान्य और कुछ उत्कृष्ट कक्षा के | यहाँ जीव जो वेदना सहता है वे सामान्य है। मनुष्य और तियेच (पशु-पक्षी) भूख-प्यास छेदन-भेदन, मरण आदि वेदना सहते हैं उन्हे नारकी नहीं कह सकते क्योंकि उसमें थोडा सुख का अंश है। नरक में उत्कृष्ट दुःख होता है। यहाँ का सुख भी सामान्य है। दुःख मिश्रित सुख है। क्षणिक सुख है, सुख का आभास मात्र है। उत्कृष्ट सुख भोगने की गति स्वर्ग गति है। अगर नरक गति न माने तो मनुष्य गति में सब पापों का उदय आता है जो गलत है। १00 साल में किये हुए पापों की सजा यहाँ लोक में सहे तो आयुष्य पूर्ण हो जाता है पर लाखों पाप रह जाते है। हजारों हत्याएं लूट फाट, चोरी की सजा ज्यादा से ज्यादा फांसी होगी, तब बाकी साल का आयुष्य नहीं चलता । आयुष्य पूर्ण हो गया और पापकी सजा बाकी रह (41) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!!
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy