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________________ एक बार जो जुआरे आये, उन्होंने उसे मार डाला। फिर दासी के यहाँ पुत्र बना, चोरी की, फाँसी हुई। मरने के बाद वापस दुसरी नर्क में गया । बाद में यह पर्वत पर एक स्त्री के रुपमें जन्म हुआ। समद्रदत्त का जीव देवलोक से नीकलकर उस स्त्री-श्रीदेवी के कुक्षी में जन्म लिया । पुत्र बडा हुआ शादी हुई। माता-पुत्र एक बार बहार गाँव जा रहे थे। रस्ते में लक्ष्मी निलय पर्वत आया। खजाने के पास ही दोनों खाना खा रहे थे । पुत्र ने थोडासा खोदकर धन निकाला । उसने सोने के चरु अपनी माता को बताया। सुषुप्त लोभदशा उसकी जागी। माता ने सब धन पाने की लालच में बेटे को जहर देकर मार डाला। पत्र को किसी गारुडी मंत्र के जानने वाले तांत्रिक ने बचा लिया। उसने बाद मे ज्ञानी गुरु भगवंतके पास दिक्षा ली। आत्मकल्याण करके वह गैवयेक देवलोक में गया । माता, पुत्र हत्या के कारण पाँचवी नरक में गई। बाद में लोभ के वश नारीयल का वृक्ष बनी । पुत्र का जीव देवलोक से निकलकर श्रेष्टिपुत्र बना है। और मेरे पास खडा है। यह वही पर्वत है जहाँ तमने धन छुपाया था। वृक्ष तेरी माता है जिससे तुझे ममत्व जागृत हुआ। इस तरह मैने मेरी पूर्व भव परंपरा आचार्य श्री के पास सुनी और उनके पास दीक्षा ली। वह मैं हूं दीक्षा के बाद मेरा नाम विजयसिंह आचार्य पड़ा। शिखि कुमार तुमने जो कुछ सुना वह मेरा जीवन चरित्र था जैसे मैने ज्ञानी गुरुभगवंत के पास से सुना वैसा ही कहा। मात्र लोभ के कारण जीवों की कितनी भव परंपरा चलती है। देखा जाय तो सिर्फ लोभ नहीं पर माया, मान, क्रोध कोई भी कषाय आत्मा का अध:पतन कराता है। चौयाँशी के चक्कर से बचना हो तो संतोष धन पास में रखो संतोषी नर सदा सुखी। ३२) द्वेष करने से नुकसान : चौथे जन्ममें मरुभूति का जीव किरणवेग नामक विद्याधर बना और कमठ का जीव नरक में नीकल कर फिर सर्प बना । इस तरफ किरणवेग ने दीक्षा ली । वे मुनि बने । एक बार वे जंगल में कायोत्सर्ग कर रहे थे। पूर्वजन्म के वैर के कारण यहाँ आकर उस सर्प ने डंख मारा । विष पुरे शरीर में फैल गया। फिर भी मुनि शुभ ध्यान में ही रहे और कालधर्म के बाद अच्युत नामके देवलोक में गये। सांप मारकर पाँचवी नरक में गया। छठे भव में मरुभूति का जीव शुभकर नगर मे वज्रनाभ राजा बना। उसने राजपाट छोडकर दीक्षा ली। एक बार उन्होने मासक्षमण तप किया। वे पारणा के लिये जंगल में प्रवेशे। वहाँ दुसरी तरफ कुरगंक नामक भील(कमठ का जीव) शिकार करने जंगल में जाने लगा। इस मुंडिया मुनि के दर्शन को अपशकुन समझ कर तीर फेंक कर उनकी हत्या कर ली। मुनि समता भाव रखकर कालधर्म प्राप्त हुए और ग्रैवेयक देवलोक में ललितांग देव बने । भील मरने के बाद सातवी महाभयंकर नरक में नारकी बना। आठवे भव में मरुभूति(वज्रनाभ) का जीव्र कनकबाहु नामके चक्रवर्ति बने और छ:खंड के चक्रवर्ति सम्राट बने। इतने सुख के होते हुए भी असार संसार छोड कर, राजपाट का वैभव त्याग उन्होंने दीक्षा ली थी । वे मुनि बने और जंगल में कार्योत्सर्ग करने लगे। पूर्व भव के वैर के कारण सर्प आया, उनको डंसा । पूरे शरीर में विष फैला फिर भी वे शुभ ध्यान में रहकर देवलोक में गये। सांप मरकर पांचवी नरक में गया। ३३) तीव्र द्वेष के पीछे पूर्व भव का वैर कारणभूत होता है। और ऐसे तीव्र द्वेष के पीछे संकल्प की संभावना है। संकल्प (नियाणु) करने में क्रोध, कारण बन सकता है। पिता-पुत्र श्रेणिक और कोणिक का पूर्व जन्म उपदेशमाला ग्रंथ में पू. धर्मदासजी गणि ने और उसकी टिका में पू. रत्नप्रभसूरिजी ने लिखा है जो इस प्रकार है। सीमाडा नगर में सिंहराजा को सुमंगल नाम का युवराज पुत्र था। राजा के मंत्री को सेनक नाम का पुत्र था। सेनक बेचारा संयोगवश उंट के अंग टेडे मेडे जैसा था । इसलिये राजपुत्र हमेशा सेनक की मजाक उडाता था। एक दिन तंग आकर सेनक घर छोडकर निकल गया । जंगल में जाकर वह तापस बन गया और तपस्या करने लगा। महिनों तक उपवासी रहने लगा। एक दिन राजा बना हुआ सुमंगल आखेट करने जंगल में गया । वहाँ सेनक को देखकर पूर्वस्मृति से पहचाना । बातचीत करते उसकी उग्र तपस्या की जानकारी मिलते ही राजमहल में आने का आमंत्रण दिया । एक महिना बाद पारणा करने महल पहुँचा । उस दिन राजा को अति वेदना थी जिसके कारण महल बंद था और द्वारपालों ने उसे वहाँ (35) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!!
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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