SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि धर्म और दर्शन में कोई मौलिक विरोध नहीं है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। भारतीय मत-भारतीय परम्परा में दर्शन औरधर्म सदैव साथ-साथ चलते हैं। उदाहरण के लिए बौद्ध दर्शन और बौद्ध धर्म, जैन दर्शन और जैन धर्म, वेदान्त दर्शन और वेदान्त धर्म आदि। इस प्रकार पाश्चात्य और भारतीय दोनों दृष्टिकोण से दर्शन और धर्म परम्परा विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। अतः हॉब्स का यह कहना कि दर्शन इतिहास, धर्मशास्त्र और विज्ञान से बिल्कुल भिन्न होता है। उचित नहीं है। हॉब्स यह कहना भी अनुपयुक्त है कि धर्म अंधविश्वास, हास्य एवं सहानुभूति अपेक्षाकृत अधिक कोमल भाव है। हॉब्स क अनुसार अदृश्य शक्ति के प्रति भय, यदि सार्वजनिक रूप से स्वीकृत हो, तो धर्म कहलाता है। यदि स्वीकृत न हो तो अंधविश्वास कहलाता है। तब तो सुकरात और ईसामसीह को क्या कहेंगे? क्योंकि विषपान और सूली पर लटकने के पश्चात् अधिकांश लोगों की स्वीकृति मिली है। जीवनकाल में तो अधिकांश खिलाफ ही थे। इसलिए धर्म को मात्र सार्वजनिक स्वीकृति मानना उचित नहीं है। कोई माने या न माने गुण को गुणी से अलग नहीं किया जा सकता है। इसी तरह धर्म या मनुष्यत्व से मानव को च्युत नहीं किया जा सकता है और दर्शन उसके विपरीत नहीं बल्कि पूरक है। अन्तश्चेतना, अन्तर्बोध और आन्तरिक चक्षु या ज्ञान चक्षु दोनों के लिए समान रूप से आवश्यक है इसलिए नितान्त भिन्न कहना सर्वथा अनुचित है। बेंथम का यह कहना भी उपयुक्त नहीं है कि सभीकार्यों की अच्छाई और बुराई की एकमात्र कसौटी उपयोगिता का सिद्धान्त है। दरअसल अन्तरात्मा ही अच्छे और बुरे कार्यों की निर्णायक और मार्गदर्शक है। सम्राट अशोक के जीवन में धर्म ने महान् परिवर्तन ला दिया। बौद्ध होने पर उसमें प्राचीन शर-विजय के बदले धर्म-विजय (या धर्माचरण से विजय) की नीति को चलाया। अशोक ने स्वयं कहा है कि "धर्म-विजय की उसकी नीति ने आचर्यजनक सफलता पायी और उसने अपने पड़ोसी यूनानी, तमिल और अन्य राज्यों को आध्यात्मिक के रूप से जीत लेने का दावा किया।" धर्म आचरण की संहिता है, जिसके माध्यम से व्यक्ति समाज के सदस्य के रूप में और एक व्यक्तित्व के रूप में नियंत्रित होता हुआ क्रमशः विकसित होता है और अन्त में चरम उद्देश्य की प्राप्ति करता है। इसीलिये महाभारत के कर्णपर्व में बतलाया गया है कि धारणाद्धर्ममिव्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः। यत्स्याद् धारणसंयुक्त स धर्म इति निश्चयः।। डॉ. जयशंकर मिश्र ने भी अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास में बतलाया है कि "आचरणगत नियमों का संग्रह ही धर्म है, जिसके तीन मूल कार्य हैं-1. नियंत्रण, 2. व्यक्तित्व का उत्थान और 3. जीवन के अन्तिम लक्ष्य 'मोक्ष' के लिए व्यक्ति को सन्नद्ध करना।" यह चार्वाक को छोड़कर सभी दार्शनिकों को मान्य है। मनुष्य का कर्तव्य कार्य और स्वभाव धर्म से संचालित होता है। दर्शनशास्त्र में भी युक्तिपूर्वक इसकी 80
SR No.009501
Book TitleGyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy