SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की उपस्थिति का पता दूसरे की उपस्थिति का और एक की अनुपस्थिति से दूसरे की अनुपस्थिति का पता चलता है। लेकिन शब्द (वाचक) और अर्थ (वाच्य) के बीच अन्वय अथवा व्यतिरेक का सम्बन्ध नहीं पाया जाता है। शब्द की उपस्थिति में भी अर्थ अनुपस्थिति रहता है तथा शब्द के अनुपस्थित रहने पर भी अर्थ उपस्थित रहता है। इसलिए शब्द को अनुमान के अन्तर्गत रखना उचित नहीं है। शब्द-प्रमाण की स्वतन्त्रता अनुभव के द्वारा भी प्रमाणित होती है। जब अन्तरिक्ष यात्री अपनी यात्रा का विवरण हमें देते हैं तो एक प्रकार का शाब्दिक ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान की प्राप्ति न तो प्रत्यक्ष के द्वारा, न अनुमान और न ही उपमान के द्वारा ही हो सकती है। इस ज्ञान की प्राप्ति का एकमात्र साधन शब्द है। अतः शब्द एक स्वतन्त्र प्रमाण है। अद्वैत एवं विशिष्टाद्वैत वेदान्तियों ने भी वेद को अपौरुषेय माना है और उसके कथन को असंदिग्ध ज्ञान बतलाया है। इनकी दृष्टि में इसे स्वतंत्र प्रमाण नहीं मानना अज्ञानता का परिचय देना है। दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, सर्वपल्ली राधाकृष्णन् आदि ने भी इस बात की सम्पुष्ट की है। इसलिये स्वामी करपात्रीजी महाराज, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि ने चार्वाक के साथ-साथ जैन एवं बौद्ध मतों का भी खण्डन किया है और न्याय एवं वेदान्त मत की सम्पष्टि की है। अतः शब्द एक स्वतंत्र प्रमाण है। इसके द्वारा प्राप्त ज्ञान यथार्थ एवं असंदिग्ध ज्ञान की मान्यता अर्वाचीन युग में भी है और भविष्य में भी इसकी महत्ता कायम रहेगी। इस तरह हम देखते हैं कि महर्षि गौतम एवं उनके अनुयायियों ने प्रमाण और प्रमेय पदार्थ की विशद् विवेचना की है और प्रमाणों की असंदिग्धता की विलक्षण व्याख्या की है। इस सम्बन्ध में एम. हिरियन्ना ने ठीक ही लिखा है कि "वैशेषिक विश्व को तत्त्वमीमांसीय दृष्टिकोण से देखता है, जबकि न्याय उसे ज्ञानमीमांसीय दृष्टि से देखता है। 65 डॉ. राधाकृष्णन् ने भी इस बात की सम्पुष्टि की है। प्रमाण और प्रमेय-ये दो पदार्थ न्याय के विशेष दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं। न्याय यह जिज्ञासा नहीं रखता कि वस्तुतः स्वतः क्या है, बल्कि इस बात में रुचि लेता है कि कैसे उनकी जानकारी या सिद्धि होती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि न्याय को वस्तुओं के स्वतन्त्र अस्तित्व में कोई सन्देह था। उसने उनका स्वतन्त्र अस्तित्व वैशेषिक की तरह ही निःसंकोच मान लिया, किन्तु ऐसा महसूस किया कि ज्ञान हमें आसानी से भ्रम में डाल सकता है और इसलिए वह यथार्थ एवं असंदिग्ध विचार के नियमों की छानबीन में लग गया। यह दृष्टिकोण शेष चौदह पदार्थों के स्वरूप से और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है क्योंकि ये सब-के-सब या तो सत्य की खोज में सहायक हैं या अतर्कोचित आक्रमणों से उसे बचाने में उपयोगी है। अभाव और हेत्वाभास के अध्ययन करने पर यह और अधिक स्पष्ट हो जाएगा।
SR No.009501
Book TitleGyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy