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________________ प्रत्यक्ष में ठीक वही सम्बन्ध है, जो मनोविज्ञान के क्षेत्र में संवेदना और प्रत्यक्षीकरण में है अर्थपूर्ण संवेदना को प्रत्यक्षीकरण कहते हैं। इसी तरह अर्थपूर्ण निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ही सविकल्पक प्रत्यक्ष है । इसीलिए नैयायिकों ने सविकल्पक ज्ञान से पहले निर्विकल्पक ज्ञान की आवश्यकता पर जोर दिया है । पहले वस्तु को एवं मनुष्यत्व को जान लेने के बाद ही "यह मनुष्य अर्थात् मनुष्यत्व (विशिष्ट) है" ऐसा विशेष्य-विशेषण रूप से ज्ञान संभव है। इसी तरह अगर हम कोई आवाज सुनें और यह भी समझ लें कि यह आवाज अपने सुग्गे की है तो यह सविकल्पक प्रत्यक्ष कहलायेगा । अतः यह कहना ठीक है - "सप्रकारकं ज्ञानं सविकल्पकम् । "26 इस सम्बन्ध में जयन्त भट्ट ने बतलाया है कि निर्विकल्प और सविकल्प दोनों प्रत्यक्ष में वस्तु की आत्मा एक ही रहती है, सिर्फ भेद इतना है कि निर्विकल्प में वह 'अनाख्यात' अथवा अव्यक्त रहती है और सविकल्प में अख्यात अथवा व्यक्त हो जाती है। सविकल्पक ज्ञान दो भागों में बांटा जा सकता है-जैसे "व्यवसाय और अनुव्यवसाय" । व्यवसाय - ज्ञान वह है, जिसमें ज्ञान - रहित वस्तु का भान होता है अनुव्यवसाय वह होता है, जिसमें ज्ञान सहित वस्तु का विषयीकरण होता है। जैसे यह मैं जानता हूँ कि यह नीली साड़ी है, किन्तु ज्ञान सम्बन्ध में विद्वानों के बीच मतैक्य नहीं है। प्रत्यभिज्ञा - पहचान ही प्रत्यभिज्ञा है । यानी प्रत्यभिज्ञा पहचान को कहते हैं । पारिभाषिक शब्दावली में हम कह सकते हैं कि पूर्वानुभूति के आधार पर किसी व्यक्ति या वस्तु को पहचान लेना ही प्रत्यभिज्ञा है। इसमें स्मृति और इन्द्रिय दोनों के सहयोग से ज्ञान मिलता है इसीलिए इसे भूत और वर्तमान का संगम कहा जाता है। यदि किसी व्यक्ति को देखने से ही साक्षात् अनुभव हो कि यही वह मनुष्य है (जिसे पहले देखा था) तो इस ज्ञान को प्रत्यभिज्ञा कहेंगे । इस प्रत्यक्ष में प्रत्यक्ष अनुभव का भाव अवश्य वर्तमान रहता है। नैयायिकों ने प्रत्यक्ष का निर्विकल्पक, सविकल्पक तथा प्रत्यभिज्ञा में जो भेद किया है, उसे बौद्ध एवं अद्वैत वेदान्ती नहीं मानते हैं। प्रत्यभिज्ञा (सं. स्त्री. ) - वह ज्ञान जो किसी देखी हुई वस्तु को अथवा उसके समान किसी अन्य वस्तु के फिर से देखने पर उत्पन्न हो । अलौकिक प्रत्यक्ष-वस्तु का इन्द्रिय के साथ असाधारण सन्निकर्ष होने से अलौकिक प्रत्यक्ष होता है। लौकिक सन्निकर्षज प्रत्यक्षी ने जहाँ विषय के साथ इन्द्रियों के सम्बन्धस्वरूप से संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय समवाय, समवेतसमवाय एवं विशेषणविशेष्यभाव इनके अन्दर कोई एक के साथ सन्निकर्ष होता है । यहाँ सन्निकर्षों की अपेक्षा होती है। वहीं अलौकिक प्रत्यक्ष उक्त संयोग आदि से उत्पन्न नहीं होता है। 28 इसलिए उसकी अपेक्षा नहीं रखता है। अलौकिक प्रत्यक्ष को भी तीन भागों में विभक्त किया गया है, वे हैं - (क) सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष अथवा धर्मप्रत्यक्षमूलक धर्मविशिष्ट धर्मी - समुदाय का प्रत्यक्ष, 26
SR No.009501
Book TitleGyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size1 MB
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