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________________ सर्वव्यवहारहेतुः ज्ञानं बुद्धिः । सा द्विविधा स्मृति अनुभवश्च 11/09 संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः । । तद्भिन्नं ज्ञानमनुभवः । स द्विविधः यथार्थः अयथार्थश्च ।। -A Primer of Indian Logic, p. 12. 63 Kappuswami Shastri, A Primer of Indian Logic, p. 255. श्रोत्रोपलब्धिर्बुद्धिनिर्ग्रायः प्रयोगेणऽभिज्वलित आकाशदेशः शब्दः । । महाभाष्य ।। जिसकी श्रोत्रों से प्राप्ति जो बुद्धि से ग्राह्य करनेयोग्य और प्रयोग से प्रकाशित तथा आकाश जिसका देश है, वह शब्द कहलाता है। सत्यार्थ प्रकाश - दयानन्द सरस्वती, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली, 1988, पृ. 41 श्रुतंमतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् । - तत्त्वार्थ सूत्र - पं. फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, प्रथम अध्याय, पृ. 37 श्रुतज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रियों से न मानकर मन से ही मानी है। - तत्त्वार्थ सूत्र, प्रथम अध्याय, पृ. 38 लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए यदि वह अन्य श्रुत का अवलोकन करता है तो ऐसा करना अनुचित नहीं है, फिर भी उस अभ्यास को परमार्थ कोटि का नहीं माना जा सकता है। उसमें भी जो कथा, नाटक और उपन्यास आदि काम को बढ़ाते हैं, जिनमें नारी को विलास और काम की मूर्ति रूप से उपस्थित करके नारीत्व का अपमान किया गया है, जिनके पढ़ने से मार-काट की शिक्षा मिलती है, मनुष्य मनुष्यता भूलकर पशुता पर उतारू होने लगता है। उनका वाचन सुनना सर्वथा छोड़ देना चाहिए। शंका- जबकि विविध दर्शन और धर्म के ग्रन्थ भी श्रुत कहलाते हैं तब फिर उनके पठन-पाठन का निषेध क्यों किया जाता है? मोक्ष मार्ग में प्रयोजक नहीं होने से उनके पठन-पाठन का निषेध किया जाता है। - तत्त्वार्थ सूत्र - पं. फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, प्रथम अध्याय, पृ. 42 वैसे ज्ञान को बढ़ाने के लिये और सद्धर्म की सिद्धि के लिए उनका ज्ञान प्राप्त करना अनुचित नहीं है। स्व- समय का अभ्यास करने से बाद ही परसमय का अभ्यास करना चाहिये अन्यथा सत्यता से च्युत होने का डर बना रहता है। - तत्त्वार्थ सूत्र, प्रथम अध्याय, पृ. 42 64 श्रीमद्भगवद् गीता, अध्याय-18, श्लोक - 66 65 एम. हिरियन्ना ( अनुवादक डॉ. गोवर्धन, श्रीमती मंजु गुप्त, श्री सुधवीर चौधरी), भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ. 244 66 डॉ. एस. राधाकृष्णन, भारतीय दर्शन, भाग-2, राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली - 6, पृ. 374. 67 वही, पृ. 389. 68 'एस. राधाकृष्णन्, भारतीय दर्शन, भाग 2, पृ. 389. 69 शास्त्रदीपिका, 1/1/5, पृ. 115 70 'तन्मृषा मोषधर्म यद्भगवानित्यभाषत सर्वे च मोषधर्माणः संस्कारस्तेन ते मृषा । नागार्जुन, मध्यमकशास्त्र 13.1 71 "इह द्रष्टुरभावाद् द्रष्टव्यदर्शने अषि न स्त इत्युक्तम् । अतः कुतो विज्ञानादिचतुष्टयं विज्ञानस्पर्शवेदनातृष्णावतुष्टव्यम्? तस्मात्र सन्ति विज्ञानादीनि ।" - प्रसन्नपदा, पृ. 45 72 प्रमेयकमल मार्तण्ड, पृ. 13 73 ब्रह्मसूत्र, शां. भा. अध्यासभाष्य, पृ. 13. " 171
SR No.009501
Book TitleGyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size1 MB
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